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________________ ३७ 1 ही कर्म फल का भोक्ता माना है। 1 यह कथन सांख्य का तर्क-संगत नहीं है नैयायिक और वैशेषिक ज्ञान को आत्मा का स्वरूप नहीं मानते। उनके मत के अनुसार ज्ञान भिन्न वस्तु है और आत्मा भिन्न वस्तु । वे ज्ञान और आत्मा को सर्वथा भिन्न मानते हैं। यह कथन युक्ति-संगत नहीं है, क्योंकि आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है। सामान्य विशेष से जो जानता है या अनुभव करता है वह आत्मा है, आत्मा से भिन्न ज्ञान नहीं है इसलिए आत्मस्वरूप ज्ञान है । ३८ परवादियों के मत पर विचार करते हुए वृत्तिकार ने हिंसा, अहिंसा, देवी, देवताओं की मान्यताओं आदि की प्रसंगिक चर्चा करते हुए उनके मत का निराकरण किया है। मीमांसक ने वेद विहित हिंसा को धर्म का कारण माना है, क्योंकि इससे देवता और अतिथियों की प्रीति प्राप्त होती है। यज्ञ आदि करने से वृष्टि होती है । अश्वमेध यज्ञ, गोमेधयज्ञ और नरमेध यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होते हैं । इत्यादि मान्याताएँ वेद विचारधारा वालों की हैं। वे ठीक नहीं हैं। जो इस प्रकार की हिंसा करते हैं या हिंसा का प्रतिपादन करते हैं, वे अनार्य हैं। इससे पाप का कारण बनता है। वे पाप के अनुबन्धी हैं। ये धर्मग्रन्थ और परलोक के विरुद्ध कार्य हैं । ३९ इसी प्रसंग में वैशेषिक मत का यह कथन प्रस्तुत किया गया है कि द्रव्य आदि षट् पदार्थों के परिज्ञान से मोक्ष होता है । बौद्धमत की अनात्मवादी दृष्टि एवं क्षणिकवाद तथा मीमांसक का मोक्ष सम्बन्धी कथन भी चतुर्थ अध्ययन के दूसरे उद्देशक में प्रसंगानुसार प्रतिपादित किया है । बौद्धमत सम्बन्धी यह विचारधारा भी प्रस्तुत की गई है कि प्राणी का ज्ञान, उसे मारने का संकल्प एवं चेष्टा तथा प्राणियों का जिससे घात हो, वह हिंसा है। जब तक प्राणी को ज्ञान न हो या ज्ञान हो जाने पर उसे मारने की भावना न हो, और भावना हो जाने पर भी तद्रूप चेष्टा न की हो और चेष्टा करने पर भी जीव न मरा हो तो वह हिंसा नहीं है। ऐसे विचारों पर जैन दर्शन की स्यादवाद दृष्टि की उपादेयता सामने आती है जिसमें किसी मत, सम्प्रदाय या दर्शन पर आक्षेप न करके सर्वदर्शी की भावना को प्रकट किया है । वृत्तिकार ने अहिंसा की सूक्ष्मता का प्रतिपादन करने के लिए विविध दार्शनिकों के मतों को रखते हुए यही विचार व्यक्त किया है कि प्राणीमात्र हित चाहता है। इसलिए मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को रोककर द्रव्यं हिंसा तथा राग-द्वेष, मोह की क्रियाओं को रोककर भाव हिंसा का परित्याग श्रेयस्कर है । १. अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः । ( जीव स्वतः नित्य है काल से) २. अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः । (जीव स्वतः अनित्य है काल से) ३. अस्ति जीवः परतोनित्यः कालतः । ( जीव परतः नित्य है काल से) ४. अस्ति जीवः परतोऽनित्यः कालतः । (जीव परतः अनित्य है काल से) ४१ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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