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आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी दृष्टि को आचारांग सूत्र में प्रतिपादित किया है । वृत्तिकार ने आत्मा की सर्वव्यापी, नित्य, क्षणिक और अकर्ता रूप मान्यता को खुलासा करने के लिए चार्वाक की अनात्म दृष्टि, वैशेषिक दर्शन की सर्वव्यापी दृष्टि, बौद्ध की क्षणिकवादिता की एकान्त क्षणिकवाद आदि का निराकरण करके स्वमत का विवेचन किया है। सांख्य दर्शन के अकर्तृत्ववाद का निराकरण करते हुए अपनी आत्मदृष्टि को प्रतिपादित किया है। उन्होंने कहा है कि आत्मा ज्ञान है, ज्ञान आत्मा है। जो आत्मवादी है, वही सच्चा कर्मवादी है और क्रियावादी है । २८ आत्मा के विविध पक्षों को प्रतिपादित करते हुए वृत्तिकार ने चार्वाक के मत का भी निराकरण किया है। उन्होंने कहा कि चार्वाक का पृथ्वी आदि भूतों को स्वीकार करना उचित नहीं है; क्योंकि पृथ्वी आदि भूतों के गुण और हैं और आत्मा के गुण अन्य हैं । असाधारण गुणों की भिन्नता भिन्न वस्तु को सिद्ध करती है । यदि भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति मान ली जाए तो किसी भी अवस्था में उसकी मृत्यु नहीं हो सकती है; क्योंकि मृतक शरीर में भी पाँचों भूत तत्त्व पाये जाते हैं : २९ गीता में आत्मा को नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन माना है । उसमें भी प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकता है, अग्नि जला नहीं सकती है, पानी गला नहीं सकता है और हवा सुखा नहीं सकती है। आत्मा की इसी दृष्टि को वृत्तिकार ने प्रतिपादित करते हुए कहा है कि तत्त्वज्ञान जीवन का उद्देश्य है । जीवन पुनः पुनः प्राप्त न हो ऐसा पुरुषार्थ करें । आहार के लिए अनिन्दनीय कार्य करें; क्योंकि आहार प्राण धारण करने के लिए है । प्राणों को धारण करना तत्त्व ज्ञान के लिए है और तत्त्वों का ज्ञान इसलिए करें कि पुनः जन्म-मरण न करना पड़े ।३१ सच्चा आत्मस्वभावी साधक आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्दमय समझता है। उसकी आत्मा शाश्वत, चैतन्यमय और आनन्द का सागर है । ३२ आत्मा को सूत्रकार ने मित्र और अमित्र भी कहा है । ३ आत्मा ही अपना मित्र है, पारमार्थिक, एकान्तिक और अत्यधिक उपकार करने वाला है । ३४ आत्मा मित्र है । यदि वही आत्मा अशुभ परिणति से युक्त हो जाता है तो वह अमित्र बन जाता है । शुभ और शुद्ध परिणति के कारण वही आत्मा मित्र बन जाता है। बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ " धम्मपद” में कहा गया है कि आत्मा ही स्वयं अपना नाथ है और आत्मा के अतिरिक्त तारने वाला दूसरा कोई नहीं है । जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने उत्तम घोड़े का संयमन करता है उसी प्रकार हमें अपने आत्मा का संयमन करना चाहिए । ३६
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आत्मा के विषय में वृत्तिकार ने विस्तृत विवेचन करते हुए जैन दर्शन की दृष्टि को प्रतिपादित किया है। सांख्य दर्शन ने आत्मा को अकर्ता माना है और साथ
आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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