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कि जो आश्रव के हेतु हैं वे कर्म की निर्जरा के हेतु ही हो सकते हैं और जो कर्म की निर्जरा के हेतु हैं वे कर्म बन्धन के हेतु भी बन सकते हैं । २४ लोकसार नामक पञ्चम अध्ययन में आत्मा की यथार्थता का परिचय देते हुए यह कथन किया है कि जो आत्मा है, वही विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वही आत्मा है। जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है वही आत्मा की प्रतीति होती है जो आत्मा और ज्ञान के इस सम्बन्ध को जानता है वही आत्मवादी है । २५ छठे धूत अध्ययन में दुःख और कर्म का कार्य-कारण भाव प्रदर्शित किया गया है । उसमें यह कथन किया गया है कि सृष्टि का समस्त कारण कर्म है । ईश्वर को इसका कारण मानना उचित नहीं है । २६
आठवें मोक्ष अध्ययन में जैन धर्म की विश्वव्यापक दृष्टि का विवेचन सूक्ष्म तत्त्वों की ओर आकर्षित करता है । सूत्रकार ने क्रियावादी अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी आदि दार्शनिकों की परम्पराओं का निराकरण करने के लिए(वेदान्त का एक पक्ष द्वैतमत) (चार्वाक मत भूत चैतन्यवादी मत ) ( लोक नित्य ही है- सांख्य दर्शन) (लोक अनित्य ही है-बौद्ध दर्शन ) (इस लोक की सादि परम्परा है)
(लोक अनादि है - सांख्य मत)
( लोक सान्त है)
(लोक अपर्यवसित है - इस लोक का सर्वथा नाश नहीं होता है२७)
अत्थलो
नत्थलोए
धुलो
अधुवे लो
साइल
अणाइए लो
सपज्जवसिए लोए
अपज्जवसिए लोए
इस तरह आचारांग - सूत्र में आचार मीमांसा के प्रतिपादन के लिए विविध दर्शन, मत, सम्प्रदाय एवं धर्मों की मान्यताओं का कथन आचारांग की दार्शनिक पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करता है । जैन दर्शन का स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद का समग्र दृष्टिकोण आचारांग सूत्र की सूत्र शैली में सर्वत्र देखा जा सकता है । यह निर्विवाद है कि जो भी कथन प्रतिपादन आचारांग सूत्र में किया गया है वह सब अनेक दार्शनिकों के दर्शन चिंतन के साथ शोध की अपेक्षा रखते हैं । इस पर स्वतंत्र रूप से ही दार्शनिक विवेचन नई दिशा प्रदान कर सकता है ।
आचारांग वृत्ति की दार्शनिक पृष्ठभूमि
आचारांग सूत्र के सूत्रों पर वृत्तिकार ने विवेचन के लिए चार प्रकार की शैली को अपनाया है—
१. नय - शैली, २ . निक्षेप - शैली, ३. प्रमाण- शैली, ४. भंग- शैली
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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