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दर्शन शास्त्रों की परम्परा में कई दर्शनों का उल्लेख आता है। उनमें षड् दर्शन का महत्त्व प्रारम्भ से लेकर अब तक बना हुआ है। दर्शन की छः संख्या अलग-अलग रूप में है। पुराण काल में न्याय, सांख्य, योग, मीमांसक और लोकायत दर्शन की प्रसिद्धि है। महाभारत और गीता से सांख्य योग दर्शन की विशेषताओं का ज्ञान होता है। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में न्याय वैशेषिक, सांख्य योग और मीमांसक दर्शन का बोलबाला था। इनके विरोधी जैन, बौद्ध और चार्वाक-ये तीन अवैदिक दर्शन भी अपना स्थान बनाये हुए थे। इस तरह वैदिक और अवैदिक इन दो परम्पराओं के कुल छः दर्शन स्थायित्व को प्राप्त होते हैं। जैन परम्परा के प्रमुख आचार्य हरिभद्र सूरि ने बौद्ध नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनी-इन छ: दर्शनों का उल्लेख किया है। मणिभद्र कृत लघु वृत्ति में उक्त दर्शनों का विवेचन है।' षड्दर्शन समुच्चय की भूमिका में पंडित दलसुख मालवणिया ने इन दर्शनों का सम्यक् विवेचन प्रस्तुत किया है।
आचारांग वृत्ति के प्रथम अध्ययन के प्रारम्भिक विवेचन में ज्ञान और क्रिया को महत्त्व दिया गया है। ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञान और क्रिया यदि परस्पर निर्पेक्ष हो तो वह इष्ट का साधन नहीं बन सकती है। क्रियारहित ज्ञान पंगु है और ज्ञान रहित क्रिया अन्धी है। यदि अन्धे और पंगु का परस्पर संयोग हो तो वह दोनों ही दावानल से बच कर जंगल से पार हो सकते हैं। यदि वे परस्पर निर्पेक्ष हों तो दोनों जलकर नष्ट हो जाएँगे। अन्धे और लँगड़े के समन्वय रूप ज्ञान और क्रिया ही फल को प्रदान करने वाली है। एकान्त ज्ञान नयवाद
ज्ञान को ही प्रमुख मानने वाले ज्ञान नयवादी हैं। वे क्रिया को नहीं मानते हैं, क्योंकि उपादेय का उपादान और हेय का त्याग, ज्ञान के आश्रित ही हैं। ज्ञान रहित की जाने वाली क्रिया इष्टकारी नहीं होती है। ज्ञान होने पर सब क्रियाएँ व्यवस्थित हो जाती हैं। ज्ञान शून्य क्रिया पतंग की तरह अनर्थकारी है। इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का प्रमुख साधन है। क्रिया-प्रधानवाद
- क्रिया को प्रधान मानने वालों का कहना है कि क्रिया ही प्रधान है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा जान लेने पर भी यदि क्रिया न की जाये तो वह ज्ञान निष्फल हो जाता है। केवल औषधि का ज्ञान कर लेने मात्र से रोग का उपचार नहीं हो जाता है अपितु
औषधि का सेवन ही रोग के निदान में सहायक होता है। मोदक का ज्ञान हो जाने से मोदक का मिठास का अनुभव नहीं होता है। उसका आस्वाद करना ही आनन्द आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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