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________________ का कारण माना जाता है। क्रिया ही फल देने वाली है ज्ञान नहीं; क्योंकि स्त्री भक्ष्य और भोग को जानने मात्र से कोई सुखी नहीं हो जाता है।१२ __ आगम की चर्चा करते हुए आगम ग्रन्थों में आगम के तीन भेद प्रतिपादित किये गये हैं-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम। अर्थ की अपेक्षा से अर्हन्त का आगम अर्थागम है। सूत्र की अपेक्षा से गणधरों का आगम आत्मागम है। अर्थ की अपेक्षा से गणधरों का आगम अनन्तरागम है; क्योंकि उन्होंने यह अर्थ सर्वज्ञ से ग्रहण किया है इसलिए गणधर आदि शिष्य के लिए सूत्ररूप आगम अनन्तरागम और अर्थरूप आगम परम्परागम है। आगम की इस निरूपण में मीमांसक दर्शन की अपौरुषेय मान्यता का विवेचन हुआ है। मीमांसक दर्शन ___ यह दर्शन वेद रूप आगम को अपौरुषेय मानता है; क्योंकि उनके मत से कोई पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। इसलिए वेद को पुरुषकृत न मानकर अपौरुषेय माना है। जैन दर्शन ने इस पर टिप्पणी करते हुए यह कथन किया कि पुरुष भी सर्वज्ञ हो सकता है; क्योंकि पुरुष परमात्मा का स्वरूप है। राग-द्वेष से मुक्त है। इसलिए उसमें किसी तरह का विरोध नहीं है, वेद वर्णात्मक है। वर्ण या अक्षर तालु आदि स्थानों के बिना नहीं बोले जा सकते हैं, अतः वेद रूप आगम अपौरुषेय नहीं है। आचारांग में सर्वत्र “सुयं मे"१३—मैंने सुना यह कहकर पुरुषैय आगम की प्रामाणिकता सिद्ध की है। आचारांग का दार्शनिक पक्ष आचारांग सूत्र आचार-विचार के तत्त्व ज्ञान पर आधारित है। यद्यपि आचारांग का तत्त्व ज्ञान धार्मिक दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है उससे कहीं अधिक दर्शन शास्त्र की दृष्टि से इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। “से आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी १५ आचारांग का यह सूत्र आत्मा, लोक, कर्म और क्रिया-इन चार तत्त्वों को प्रतिपादित करता है। ये सभी तत्त्व तत्कालीन दार्शनिकों के विविध विचारों को व्यक्त करते हैं। इन्हीं विचारों को केन्द्रबिन्दु बनाकर आचारांग सूत्र विविध दार्शनिक मतों का संक्षिप्त रूप में निराकरण करता है। मैंने किया, मैंने करवाया, मैंने करते हुए को अनुमोदन किया, मैं करता हूँ, मैं करवाता हूँ, मैं करते हुए अनुमोदन करता हूँ। मैं करूँगा, मैं करवाऊँगा, मैं करते हुए को अनुमोदन करूँगा–उक्त विकल्प दार्शनिक विचारों से परिपूर्ण हैं। शस्त्र परिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में संसार के समस्त जीवों की रक्षा, सापेक्ष दृष्टि को प्रस्तुत करने वाली बातें हैं। लोक विजय नामक द्वितीय अध्ययन में माता-पिता आदि के सम्बन्धों की मीमांसा करते हुए जो भी कथन किया गया है उसमें नियमतः दर्शन तत्त्व का समावेश है। वास्तव में वे विमुक्त मनुष्य हैं जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र १२४ आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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