________________
१. आगम युग, २. अनेकान्त स्थापना युग, ३. प्रमाण - शास्त्र व्यवस्था युग, ४. नवीन न्याय युग ।
इस विभाजन से स्पष्ट है कि प्रत्येक युग का कोई न कोई दार्शनिक पक्ष रहा
होगा ।
(१) महावीर निर्वाण से लेकर १००० वर्ष का युग आगम युग है। (वी. पू. ४७० वी. ५००),
(२) दूसरा वि. पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक,
(३) तीसरा आठवीं से सत्तरहवीं शताब्दी तक,
(४) चौथा अठारहवीं से आधुनिक समय पर्यन्त ।
आगमों या अन्य इसके व्याख्या ग्रन्थों में दार्शनिक तत्त्व की प्रक्रिया अनेकान्त व्याख्या युग प्रमाण शास्त्र-युग को स्पष्ट करती है; क्योंकि विवेचनकारों ने आगम युग के दार्शनिक तत्त्वों को तत्कालीन प्रचलित मत-मतान्तरों के मूल सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए भी दार्शनिक चर्चा प्रस्तुत की है । आगम और उनकी निर्युक्तियों, चूर्णियों, भाष्यों एवं वृत्तियों में आगम साहित्य के मूल विषय को आगम युग के दर्शन तत्त्व के निरूपण में जो स्थान नहीं दिया गया था, उसे विवेचनकर्त्ताओं ने आत्मवादी, कर्मवादी, लोकवादी, क्रियावादी, विज्ञानवादी, विनयवादी आदि दृष्टियों को अपने सूक्ष्म विश्लेषण के साथ प्रस्तुत किया है । वृत्तिकार शीलंकाचार्य ने आचारांग वृत्ति के विवेचन में जिस दार्शनिक दृष्टि को अपनाया है, उसे हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं
(१) प्रमाण-पद्धति, (२) नय-पद्धति, (३) निक्षेप-व्यवस्था, (४) भंग - विवेचन ।
I
आगमों की भंग विवेचना दार्शनिक विवेचना की एक ऐसी पद्धति है जिसमें अनेकान्त की समायोजना परिलक्षित होती है । स्याद्वाद सिद्धान्त की शैली पर आधारित आचारांग वृत्ति की पद्धति अन्य आगम ग्रन्थों की टीकाओं में भी पायी जाती है । दार्शनिकों की दर्शन दृष्टि ने स्वतंत्र दर्शन ग्रन्थों की रचना के माध्यम से जीव जगत, ईश्वर, प्रमाण, नय आदि के तत्त्वों को सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत करने का जो प्रयास किया, वह सब आगम के सैद्धान्तिक तत्त्वों के विश्लेषण पर ही आधारित है । जो पूर्व में था अर्थात् जो आगम रूप में प्रसिद्ध था, वही दर्शन युग में प्रवेश करते ही खण्डन-मण्डन की पद्धति को प्राप्त कर गया । परिणामस्वरूप प्राचीन आत्मा, जगत, ईश्वर आदि का विश्लेषण अपने-अपने पक्षों पर केन्द्रित होकर विषयों को अधिक सटीक बनाने लगा। दार्शनिकों की प्रस्तुति प्राचीन मान्यताओं से हटकर कुछ भी कहने में असमर्थ नहीं है; क्योंकि जो किसी न किसी प्रमाण को लेकर प्रस्तुत किया जाता है । सत्य, सत्य होता है । सत्य को विविधरूपों में प्रस्तुत करके तर्क-संगत बनाने
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
१२१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org