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________________ भाव शब्द, गुण और कीर्ति शब्द का निर्देश किया है। वीतराग प्रभु के एवं मुनिजनों के स्तुतिपरक शब्द, स्तोत्र और भक्तिमय काव्य अभीष्ट हैं तथा जिनमें अहिंसा की प्रधानता हो ऐसे गुण प्रशंसनीय होते हैं।२६६ ___ आचारांग के अतिरिक्त स्थानांग,६७ भगवती सूत्र,६८ उत्तराध्ययन६९ आदि ग्रन्थों में भी वाद्य आदि शब्दों का निषेध किया गया है। इस तरह से लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार के शब्दों में आसक्ति, राग-भाव, गृद्धता, मोह और मूर्छा आदि का निषेध किया गया है। पञ्चम अध्ययन : रूप सप्तिक इस अध्ययन में राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले जितने भी प्रकार के चक्षुइन्द्रिय आश्रित रूप हैं, उन सभी का निषेध किया गया है ।२७° वृत्तिकार ने रूप सप्तक नामक इस अध्ययन में रूप के निक्षेप की दृष्टि से चार भेद किये हैं-१. नाम निक्षेप, २. स्थापना निक्षेप, ३. द्रव्य-निक्षेप, ४. भाव-निक्षेप। इनमें से नाम और स्थापना निक्षेप का विवेचन नहीं किया गया है। द्रव्यरूप और भावरूप उन्हें केन्द्रबिन्दु बना कर १. वर्णगत और २. स्वभावगत रूपों का कथन किया है। वर्णगत में पाँचों वर्ण लिये गये हैं और स्वभावगत रूप में क्रोध से भौंहों का चढ़ना, आँखें लाल-पीली होना, शरीर काँपना आदि होता है ।२७१ इस तरह इस रूप सप्तक में दृश्यमान रूपों का कथन करके सात प्रकार के रूपों का निषेध किया है। षष्ठ अध्ययन : परक्रिया सप्तिक । षड्विध निक्षेप के आधार पर परक्रिया अध्ययन में निम्न छ: क्रियाओं के करने का निषेध किया गया है२७२ १. पर, २. अन्य पर, ३. आदेश पर, ४. क्रम पर, ५. बहु पर, ६. प्रधान पर, '६ निक्षेप वृत्तिकार ने दिये हैं। उनमें से आदेश पर को ही ग्रहण किया जा सकता है जिसका अर्थ नियुक्त करता होता है। परक्रिया से सम्बन्धित इस अध्ययन में परक्रिया का स्वरूप, परक्रिया का निषेध, काय-परिकर्म परक्रिया का निषेध, वर्ण परिक्रम का निषेध, ग्रन्थों, आर्श-भगंदर आदि परक्रिया का निषेध, परिचर्या परक्रिया का निषेध आदि इस अध्ययन की विशेषता है। साधु-साध्वी दोनों ही संयम की आराधना में इन क्रियाओं को अहितकारी मानते हुए इनसे दूर रहते हैं तथा वे सदैव ही ज्ञान साधना में रत समितिपूर्वक विचरण करते हैं। सप्तम अध्ययन : अन्योन्यक्रिया सप्तिक . परस्पर की क्रियाओं को निषेध करने वाला यह अन्योन्यक्रिया सप्तक श्रमण के सर्वोत्कृष्ट, तेजस्विता के गुणों को प्रकट करने वाला है, क्योंकि श्रमण परस्पर एक दूसरे की परिचर्या, मनसा, वयसा, कायसा नहीं कर सकते हैं। इससे उनकी भावना दीन-हीन बनती है। वृत्तिकार ने यह कथन किया है कि साधु यत्नपूर्वक चलता है, यत्नपूर्वक बैठता है और यत्नपूर्वक ही सभी क्रियाएँ करता है,२७३ इसलिये अन्योन्य-क्रिया आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन १०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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