SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निषीधिका नामक अध्ययन में श्रमण के बैठने के स्थान का विवेचन किया गया है । निषीधि का अर्थ है— बैठने का स्थान । प्राकृत शब्दकोष में निषीधिका के निशीधिका, नैषेधिकी आदि रूपान्तर की जगह, पाप क्रिया के त्याग प्रवृत्ति स्वाध्याय, भूमि अध्ययन स्थान आदि अर्थ मिलते हैं । २६० वृत्तिकार ने निक्षेप के आधार पर निशीथ का विवेचन भी किया है । निषीधिका की अन्वेषणा तभी की जा सकती है जबकि आवास-स्थान संकीर्ण, छोटा, खराब या स्वाध्याय योग्य न हो। स्वाध्याय भूमि या स्वाध्याय स्थान को ग्रहण करते समय श्रमण विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करता है । वह कलह, कोलाहल आदि सावद्य क्रियाओं से रहित स्थान को ग्रहण करता है एवं प्रयत्नपूर्वक आचार-विचार की समीक्षा करता है I तृतीय अध्ययन : उच्चार-प्रस्रवण सप्तक उच्चार शब्द का अर्थ है - शरीर से जो प्रबल वेग के साथ च्युत होता निकलता है उस मल या विष्ठा का नाम उच्चार है । प्रस्रवण का शब्दार्थ है - प्रकर्ष रूप से जो शरीर से बहता है, सरकता है । प्रस्रवण (पेशाब) मूत्र या लघुशंका को कहते हैं । २६९ उच्चार और प्रस्रवण दोनों ही शारीरिक क्रियाएँ हैं । उनका विसर्जन आवश्यक है, परन्तु विसर्जन करते समय विविध प्रकार की क्रियाओं को ध्यान में रखना साधु का कर्त्तव्य होता है, इसलिये महाव्रती श्रमण के लिये यतनापूर्वक षड्जीवनिकाय की रक्षापूर्वक शुद्ध-विधि और निषेधपूर्वक मल-मूत्र आदि के विसर्जन का निर्देश है । २२ सूत्रों में विधि और निषेध की क्रियाओं का वर्णन है । निशीथ चूर्णि २६२ में भी इसका विस्तार से परिचय दिया गया है 1 इस तरह का परिचय वृत्तिकार ने भी दिया है । २६३ साधु को किस तरह मल-मूत्र का विसर्जन करना चाहिए, किस तरह से उसका परिस्थापन करना चाहिए ? इत्यादि का विस्तृत विवेचन इस अध्ययन में है 1 चतुर्थ अध्ययन : शब्द सप्तिका शब्द सप्तक नामक यह अध्ययन कर्णेन्द्रिय के विषय को प्रतिपादित करता है । कर्णेन्द्रिय का कार्य शब्द श्रवण करना है, साधक संयम साधना को निमित्त बनाकर ज्ञान- दर्शन और चारित्र की वृद्धि करने वाले शब्दों को श्रवण करता है। वीतराग के वचनों का चिन्तन करता है । गुरु के चिंतनशील विचारों से सम्यक् मार्ग की ओर प्रवृत्ति करता है । २६४ लोक में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के शब्द होते हैं । साधक उनमें से अनुकूल शब्दों को ही ग्रहण करता है । जहाँ कर्णप्रिय और कर्ण- कटु शब्द हों, वहाँ पर श्रवण की आसक्ति नहीं होती है । दशवैकालिक सूत्र में भी प्रेरणा उत्कंठा से युक्त शब्दों के सुनने का निषेध किया है । २६५ १. इच्छा, २. लालसा, ३. आसक्ति, ४. राग, ५. गृद्धि, ६. मोह और ७. मूर्च्छा - इन सातों से दूर रहने का निर्देश होने से (शब्द सप्तक) नाम सार्थक है । वृत्तिकार ने द्रव्य शब्द और T १०४ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy