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स्थित रहने के लिये औपशमिक आदि भावों की ओर सतत प्रयत्नशील रहता है। अतः यह स्थान सप्तिका नामक अध्ययन संक्षिप्त रूप में साधु के शयन स्थान आदि का विवेचन करने वाला अध्ययन है। इस अध्ययन में उद्देशक नहीं यह चूलिका के रूप में प्रसिद्ध है। सूत्रकार ने साधु एवं साध्वी के स्थानों का निर्देश करते हुए अप्रासुक स्थानों का निषेध भी किया है, वृत्तिकार ने सूत्रकार के विवेचन को ध्यान में रखकर साधु-साध्वियों के स्थान, एषणा और शय्या एषणा के सम्बन्ध में जिन स्थानों का निषेध किया वे इस प्रकार हैं
१. अण्डों युक्त या मकड़ी के जालों से युक्त स्थान पर न ठहरें, २. जहाँ पर आधा कर्म आदि दोष लगते हैं उन स्थानों पर न ठहरें, ३. अनासेवित स्थान में न ठहरें, ४. जिस स्थान पर भारी वस्तुओं को हटाया गया हो या आहर निकाला गया हो, उन स्थानों पर न ठहरें, ५. जिस स्थान से हरी वनस्पति आदि को उखाड़ा गया हो ऐसे स्थान पर न ठहरें।
इत्यादि ग्यारह आलापकों में राग स्थानों का विवेचन किया है ।२५७ वृत्तिकार ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि जिस स्थान में दो, तीन, चार या पाँच साधु समूह रूप में ठहरें वहाँ पर एक दूसरे के शरीर आलिंगन दुष्क्रियाओं से दूर रहें। शयन स्थान में दो हाथ का अन्तर आवश्यक है।२५८ श्रमण के चार स्थान प्रतिमा के रूप में प्रतिपादित किये गये हैं। साधु के लिये इन्हें ग्राह्य बतलाया गया है।
१. अचित्त स्थानोपाश्रया, २. अचित्तावलम्बना, ३. हस्तपादादि परिक्रमणा, ४. स्तोकपाद विहरणा।
इन चारों का परिचय वृत्तिकार ने इस रूप में दिया है
१. अचित्त स्थानोपाश्रया-अचित्त का आश्रय लेकर रहना, दीवार-खम्बे आदि उचित वस्तुओं का पीठ या छाती से सहारा लेना, थक जाने पर आगल का सहारा लेना आदि साधु के लिये वर्जित हैं। अपने स्थान की मर्यादित भूमि में ही काय परिक्रमण करना ठीक है ।२५९
२. अचित्तावलंबना-कार्योत्सर्ग की स्थिति के अतिरिक्त आलम्बन अचित्तावलम्बन है।
३. हस्तपादादि परिक्रमणा–कार्योत्सर्ग की स्थिति में केवल आलम्बन ही लेना, परिक्रमण नहीं करना।
. ४. स्तोकपाद विहरणा–कार्योत्सर्ग की स्थिति में विचलित नहीं होना। इस तरह से यह अष्टम अध्ययन भिक्षु और भिक्षुणी के आचार का सर्वस्व विवेचन करता
द्वितीय अध्ययन : निषीधिकाआचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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