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प्रथम उद्देशक
अवग्रह ग्रहण की अनिवार्यता को प्रस्तुत करने वाला अध्ययन संयमी के संयमपूर्वक विचरण करने की विशेषताओं का उल्लेख करता है । सर्वत्र अवग्रह का गुरु की आज्ञानुसार ग्रहण करना आवश्यक है । प्रतिक्रमण, शयन, प्रवचन, स्वाध्याय, तप वैयावृत्य आदि प्रवृत्ति की आज्ञा भी आवश्यक है । २५३ अवग्रह याचना के विविध रूप इस उद्देश्क में गिनाये गये हैं । इसमें अवग्रह में आने वाले दोषों को भी दर्शाया गया है। संयमी साधक अवग्रहपूर्वक ही समितियों का पालन करता है, क्योंकि आचार-विचार के साथ अवग्रह भी संयमी का मूल - धर्म 1
द्वितीय उद्देशक
अवग्रह की विधि - निषेध को प्रतिपादित करने वाला यह उद्देशक निम्न चार बातों का निर्देश करता है२५४–
१. किसी स्थान, रूप अवग्रह की अनुज्ञा लेने की विधि, २. अवग्रह ग्रहण करने के बाद वहाँ निवास करते समय साधु कर्त्तव्य, ३. आम्र, इक्षु एवं लहसुन के वन में अवग्रह ग्रहण करके, ठहरने पर अप्रासुक अनैषणीय निषेध करें, ४. यदि वस्तुएँ प्रासुक या एषणीय हों तो उस क्षेत्र के स्वामी से या अधिकारी से विधिपूर्वक ग्रहण करें ।
आचारांग की आचार संहिता की विधि को भी साधु जीवन का अनिवार्य अङ्ग मानते हैं । अवग्रह सम्बन्धी सप्त प्रतिमाएँ २५ साधु के जीवन को सहिष्णु, समभावी एवं नम्र बनाती हैं। इसलिये समग्र आचार-विचार के लिये अवग्रह शुचिता का कार्य करने वाली है 1
द्वितीय चूलिका :
प्रथम अध्ययन : स्थान सप्तिका -
स्थान-सप्तिका अध्ययन में धार्मिक क्रियाओं के साथ साधु के स्थान का भी विवेचन है। श्रमण अवग्रह शील व्रतों से युक्त रात्रि - भोजन से रहित, पञ्च महाव्रत धारी गुणवन्त, शीलवन्त, संयम-युक्त, ब्रह्मचर्य के नौ प्रकार के ब्रह्म की गुप्ति से युक्त विवेकपूर्वक स्थान आदि को ग्रहण करते हैं । २५६ वे यथासमय शयन, प्रतिलेखन, प्रवचन, कार्योत्सर्ग आदि क्रियाओं से युक्त विचरण करते हैं । यह अध्ययन द्रव्य- स्थान और भाव-स्थान की भी विवेचना करता है । मूलतः साधना प्रवीण साधक स्वभाव स्थित रहने के लिये औपशमिक आदि भावों की ओर सतत प्रयत्नशील रहता है अतः यह स्थान सप्तिका नामक अध्ययन संक्षिप्त रूप में साधु के शयन स्थान आदि का विवेचन करने वाला अध्ययन है । इस अध्ययन में उद्देशक नहीं यह चूलिका के
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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