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आश्रय पाकर ईर्या गमन नहीं करता है। संयम की साधना में रत श्रमण ज्ञान आदि से युक्त आचार की पवित्रता हेतु प्रयत्न करता रहता है। तृतीय उद्देशक
साधु-साध्वी उन स्थानों का अवलोकन न करें जिन स्थानों पर नहरें हों, उद्यान हों, नदी-नाले हों या अन्य कोई खाली भू-भाग हो।२३९ इन स्थानों पर इन्द्रिय संयम को सर्वोपरि मानकर आचार्य या उपाध्याय द्वारा निर्दिष्ट वचन का पालन करें। ग्रामानुगमन विचरण करते हुए साधु हिंसक पशुओं, निर्दयी लोगों आदि से विचलित न होते हुए निर्भयतापूर्वक आत्म-साधना में लीन रहे। इस तरह यह अध्ययन भी साधु के ईर्या-एषणा से सम्बन्धित गमन की विधि को प्रस्तुत करने वाला है। चतुर्थ अध्ययन : भाषाजात
आचारांग सूत्र के इस अध्ययन में वाक्य-शुद्धि, वाक्य-निक्षेप एवं भाषा के भावों पर विचार किया गया है। भाषा-जात का अर्थ है-भाषा की उत्पत्ति, भाषा का जन्म, भाषा का समूह, भाषा का संघात, भाषा के प्रकार, भाषा की प्रवृत्तियाँ, भाषा के प्रयोग और भाषा की प्राप्ति । अर्थात् जिससे नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल भाव
और रूप२४° इन उत्पत्ति रूप द्रव्य-भाषा-जात का विवेचन जिसमें हो, वह अध्ययन साधुओं की भाषा-समिति पर बल देता है। वृत्तिकार ने जात के चार भेद किये हैं
१. उत्पत्ति-जात, २. पर्यव-जात, ३. अन्तर-जात और ४. ग्रहण-जात ।२४१ इन चार द्रव्य भाषा वर्गणा के आधार पर भाषा वचन पर प्रकाश डाला गया है।
___ भाषा, वचन शुद्धि के लिये वृत्तिकार ने विधि और निषेध रूप में वचन विभक्ति नाम से सोलह भेद प्रस्तुत किये हैं। इसी के अन्तर्गत पुलिंग आदि पर विचार किया गया है। भाषा द्रव्य-वर्गणा भाषा की उत्पत्ति आदि से सम्बन्धित यह अध्ययन साधु के द्वारा एषणीय भाषा वर्गणा का विवेचन करता है। प्रथम उद्देशक- .
___ भाषागत आचार-अनाचार के विवेक पर आधारित यह उद्देशक वाणी संयम पर प्रकाश डालता है। आगमों में साधुओं के लिये निषेध करने योग्य भाषा के छ: कारणों का कथन निम्न प्रकार किया है-क्रोध से, अभिमान से, माया से, लोभ से. जानते, अजानते, कठारेतापूर्वक एवं सर्वकाल सम्बन्धी निश्चित भाषा का प्रयोग नहीं करता है । भाषा प्रयोग के समय संयमी साधक सोलह प्रकार के वचनों का विवेकपूर्वक प्रयोग करता है। एक वचन बोलने पर एक ही वचन ४२ का प्रयोग स्त्री, पुरुष या नपुंसक में से किसी भी शब्द का प्रयोग साधक करता है। साधक प्राकृतिक तत्वों आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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