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. तृतीय अध्ययन : ईर्या
ईर्या नामक इस अध्ययन में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव२३६ इस प्रकार की ईर्याओं का विवेचन किया गया है। ईर्या गमन का नाम है। साधु का गमन प्राणियों के हित के निमित्त होता है, इसलिये उनका ईर्या-गमन संयम के भाव को दर्शाता है। ईर्या के भेद-प्रभेद में भाव-ईर्या और द्रव्य-ईर्या प्रमुख हैं। भाव-ईर्या में चरण-ईर्या और संयम-ईर्या को रखा है, द्रव्य-ईर्या में सचित्त, अचित्त, सचिताचित्त-इन तीन ईर्याओं का विवेचन किया है ।२३७
ईय में स्थान, गमन निषेध्या और शयन का समावेश है। साधु किस प्रकार • से गमन करता है, किस क्षेत्र को प्राप्त होता है और किस तरह से धर्म और संयम
की सुरक्षा करते हुए अपनी क्रियाओं को करता है। ईर्या अध्ययन के इस विवेचन में साधु के चार साधनों पर अर्थात् ईर्या के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। आलम्बन काल, मार्ग और यातना पर ही केन्द्रित इसके तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक
वर्षावास विहार चर्या से सम्बन्धित यह उद्देशक साधु-साध्वियों के वर्षाकाल में प्राप्त स्थान आदि का विवेचन करता है। वर्षावास में साधु का निवास कहाँ हो? किस क्षेत्र में विचरण करे? और कब तक उन स्थानों पर रहे? जिन स्थानों को उसने यतनापूर्वक ग्रहण किया था। विहार के समय जीवों की यतना पर ध्यान देना साधु का परम कर्त्तव्य होता है। इसलिये वे चार हाथ भूमि को देखकर संशोधन कर उस पर गमन करते हैं, यतनापूर्वक चलते हैं, अनार्य देश में भी संयम और साधना के भाव से गमन करते हैं। कारणवश नौकारोहण की विधि का विधान भी इस उद्देशक में किया गया है२३८ परन्तु यह भी ध्यान रखने को कहा गया है कि ईर्या पथ पर प्रवर्तित साधु एवं साध्वी समितिपूर्वक गमन करे। द्वितीय उद्देशक
नौकारोहण में उपसर्गों का आना भी होता है, इसलिये साधक उस पर भली प्रकार से बैठे, ईर्या समिति का पालन करे। संकट के समय में नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि के द्वारा यह कहा जाये कि आप मेरे छत्र, भाजन, दण्ड आदि को पकड़े रखो। इन शस्रों को ग्रहण करो या अन्य कोई कार्य करने के लिये कहे तो उसमें मौन धारण के बैठा रहे; क्योंकि ईर्या समिति पर चलता हुआ श्रमण संयम को सर्वोपरि मानता है। वह विषम मार्गों, ऊँचे-नीचे मार्गों, ऊबड़-खाबड़ मार्गों आदि का आश्रय पाक ईर्या गमन नहीं करता है। संयम की साधना में रत श्रमण ज्ञान आदि से युक्त आचार की पवित्रता हेतु प्रयत्न करता रहता है।
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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