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________________ द्वितीय उद्देशक इस उद्देशक में साधक के शयन आसन आदि के ग्रहण करने का ही विधान है। गृहस्थ संसक्तं उपाश्रय का निषेध, उन्हें पूर्ण रूप से किया गया है। गृहस्थ संस्कृत, गृह में स्थान या आसन इसलिये वर्जित बतलाये गये हैं कि वहाँ गृहस्थ के द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ अवश्य होती रहेंगी । इसलिये ऐसे स्थानों में प्रवेश करने से पूर्व विवेक को जाग्रत करना आवश्यक हो जाता है । सभी प्रकार के दोषों से रहित जो स्थान होता है, वही, साधु के लिये उचित बताया गया है । आगमों में निम्न नौ प्रकार की शय्याओं का वर्णन है— १. कालाति-क्रान्ता, २ . उपस्थाना, ३. वर्ज्या, ४. अनभिक्रान्ता, ५. अभिक्रान्ता, ६. महावर्ज्या, ७. सावद्या, ८. महासावद्या और ९ . अल्प क्रिया । २३३ साधु की उपर्युक्त नौ प्रकार की शय्याओं में वृत्तिकार ने महासावद्य शय्या को उचित बतलाया है। निर्ग्रन्थ, शाक्य (बौद्ध), तापस, गैरिक और आजीवक२३४—ये श्रमण के पाँच रूप तत्कालिक समाज में प्रचलित थे । वृत्तिकार ने अल्प क्रिया शय्या को निर्दोष बतलाया । उपाश्रय में निर्वघ क्रियाएँ श्रमण के द्वारा की जाती हैं । इसलिये शास्त्रकार ने इसके मूल में अल्प क्रिया न रख कर अल्प सावद्य क्रिया को रखा है इस तरह ये शय्यैषणा से सम्बन्धित उद्देशक के चारित्र वृद्धि की उत्कृष्टता को प्रतिपादित है I 1 करता तृतीय उद्देशक यह उद्देशक उपाश्रय गवेषणा से सम्बन्धित है, जिसमें साधक को गृहस्थ से उपाश्रय की अनुमति लेने का निर्देश है । उपाश्रय में रहने वाला यह साधक आधा आदि रहित क्रियाओं को करता है, वह चारित्रिक गुणों की वृद्धि हेतु एषणीय स्थान की याचना करता है । वृत्तिकार ने एषणीय स्थान तीन बतलाये हैं— १. मूल गुण विशुद्ध स्थान, २ . उत्तर गुण विशुद्ध स्थान और ३. मूलोत्तर गुण विशुद्ध स्थान | २३५ श्रमण. . सदैव मूल और उत्तर गुणों की वृद्धि हेतु यत्न करता है, वह ऐसे स्थानों को ग्रहण करता है जो स्त्रियों से शून्य, पशुओं से मुक्त और नपुंसकों से सर्वथा रहित होतें हैं । इन तीनों के अतिरिक्त साधक सदैव साधना में रत निष्कपट भाव से उपाश्रय की गवेषणा करता है, जिसमें रहकर वह सम्यक् प्रकार से चारित्र की वृद्धि कर सके । वृत्तिकार ने शय्यैषणा के इस तृतीय उद्देशक में यतनाचार उपाश्रय याचना, उपाश्रय में निषिद्ध कर्म, संस्तारक का विवेक आदि का प्रतिपादन किया है । शय्यैषणा तप के आचार से युक्त होती है, इसलिये साधक को ऐसे स्थान का ग्रहण करना चाहिए, जो सभी तरह से एषणीय हो । आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only ९७ www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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