________________
अग्राह्यपानक का निषेध करने वाला यह उद्देशक आहार भी आसक्ति से श्रमण को रोकता है। वृत्तिकार ने कहा है कि पानक उद्गम दोषों से दूषित होने के कारण ग्रहण करने योग्य नहीं है। साधक को चाहिए कि वह द्राक्षा, आँवला, इमली या बेर आदि पदार्थों को निचोड़ कर बनाये जाने वाले पेय योग्य पदार्थ को भी ग्रहण न करे।२२३ अपक्व शस्त्र अपरिणत वनस्पति आहार ग्रहण का निषेध भी किया गया है। वृत्तिकार ने विकृत होने वाले सोलह प्रकार के आहार का निषेध किया
इस तरह ये उद्देशक अग्राह्य पानक से सम्बन्धित आहार का विवेचना करता है; क्योंकि पानक मधु, मद्य, घृत आदि में विविध जीवों की उत्पत्ति होती रहती है इसलिये ऐसे पदार्थों से युक्त वस्तु को नहीं ग्रहण करना चाहिए। श्रमण का मूल कर्तव्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि करना है इसलिये सभी तरह से आहार की गवेषणा में समभाव की प्रवृत्ति को धारण करे। नवम उद्देशक
__ ग्रासैषणा दोष का परिहार साधु-साध्वी के लिये अवश्य करना चाहिए। उन्हें स्वाद लोलुपता आहार ग्रहण करने में अविवेक आदि की प्रवृत्ति को नहीं करना चाहिए। साधु आहार की क्रिया में बयालीस दोषों का परिहार कर ग्रासैषणा करता है। साधर्मिक, मनोज्ञ, साम्भोगिक और अपारिहारिक२२५ कारणों से युक्त आहार मिलने पर ही आहार को ग्रहण करते हैं। वृत्तिकार ने आहार की लोलुपता का मूल रूप से निषेध किया है और यह कथन किया है कि वे साधर्मिक, साम्भोगिक, समनोज्ञ और अपारिहारिक वृत्तिपूर्वक ही ग्रासैषणा करें। इस तरह से यह उद्देशक आहार ग्रहण में विवेक धारण करने की शिक्षा देता है। दशम उद्देशक
इस उद्देशक में स्वाद की लोलुपता और मायाचार से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है; क्योंकि मायाचार से–१. आहार वितरण के समय पक्षपात, २. सरस आहार को नीरस आहार से दबाना और, ३. भिक्षा प्राप्त सरस आहार को उपाश्रय में लाये बिना ही बीच में खा लेना. जैसी प्रवृत्ति होती है। अग्राह्य आहार खाने योग्य कर्म
और फेंकने योग्य अधिक होता है इसलिये ऐसे आहार को ग्रहण न करें। वृत्तिकार ने ऐसे चार प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं, जैसे
१. ईख के टुकड़े एवं उसके विविध अवयव, २. मूंग, मोठ, चवले आदि की हरी फलियाँ, ३. गुठली वाले फल या बीज वाले फल, जैसे-तरबूज, ककड़ी, अनार, नींबू पपीता आदि और, ५. जिसमें काँटे आदि अधिक हों ऐसे फल ग्रहण करने योग्य नहीं हैं।२२६
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
९५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org