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________________ वृत्तिकार ने कुल का अर्थ घर किया है, वंश या जाति नहीं; क्योंकि आहार घरों में मिलता है जाति या वंश में नहीं ।२१४ इसके अतिरिक्त इस उद्देशक में संखड़ी गमन निषेध, उत्सव निषेध आदि भी किया है ।२१५ इस तरह से यह समग्र विवेचन अनाहार से सम्बन्धित है तथा आहार में दोषों से विमुक्त होने का उपाय भी बतलाया तृतीय उद्देशक साधु के गमनागमन से सम्बन्धित यह उद्देशक उन स्थानों का निषेध करता है जहाँ हिंसक जनों का निवास हो, पशु-पक्षी आदि का स्थान हो या जहाँ चोर आदि रहते हों। इसी में यह भी कथन किया गया है कि साधु एकाकी विचरण न करे, संखड़ी (बृहद्भोज)१६ में प्रवेश न करे। यह आध्यात्मिक बल को प्रस्तुत करने वाला है तथा श्रमण के लिये ध्यान की क्रिया को भी बतलाने वाला उद्देशक है। चतुर्थ उद्देशक___इस उद्देशक में आहार में लगने वाले विविध दोषों की विवेचना की है। शीलांकाचार्य ने अपनी वृत्ति में श्रमण की आहारचर्या पर विचार करते हुए आहार में लगने वाले निम्न दोषों को निषेध किया है, जैसे १. जिस स्थान पर गृहस्थ के यहाँ गाय दुही जा रही है ऐसे स्थान पर प्रवेश नहीं करना। २. जहाँ आहार तैयार न हुआ हो ऐसे घर में प्रवेश नहीं करना । ३. जिस घर से कोई अन्य साधु ग्रहण कर चुका हो ऐसे स्थान पर प्रवेश नहीं करना।२१७ इन तीन कारणों को ध्यान में रख कर श्रमण भिक्षा विधि का पालन करे। इस तरह श्रमण संखड़ी गमन निषेध, मांस आदि प्रधान स्थानों पर निषेध, गो दोहन वेला में भिक्षार्थ प्रवेश करने का निषेध, अतिथि श्रमण आने पर भिक्षा का निषेध एवं इस लोलुपता आदि का निषेध संयमी भी इस उद्देशक में है। पञ्चम उद्देशक यह उद्देशक भी आहार में लगने वाले दोषों का निषेध करता है। इसमें वचन शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। अग्र पिण्ड ग्रहण निषेध, विषम मार्ग आदि का निषेध, बन्द द्वार वाले घर में प्रवेश निषेध आदि का विवेचन इसमें है। यह उद्देशक निर्ग्रन्थ श्रमण के लिये समभाव की ओर ले जाने वाला है। वृत्तिकार ने कथन किया है कि किसी भी प्रकार से आहार में लगने वाले दोषों को निषिद्ध करता हुआ आहार ग्रहण करे। आहार उत्सर्ग रूप में ग्रहण न करे। दुर्भिक्ष, मार्ग की थकान या रुग्णता आदि के कारण अपवाद रूप में आहार को ग्रहण करे।२१८ प्रस्तुत उद्देशक आहार की समभावी विधियों का निर्देश करता है। आहार सामग्री को देते समय यदि गृहस्थ आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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