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________________ ही स्वाध्याय आदि की क्रियाओं में लीन रहते हैं। प्रथम चूलिका के रूप में प्रस्तुत आचारांग का आचार कल्प भिक्षु के समग्र जीवन को प्रस्तुत करता है। वृत्तिकार ने जो वृत्ति लिखी है उसमें विषय को प्रतिपादित करने के लिए पारिभाषिक शब्दों को आधार बनाया है। शब्द व्युत्पत्ति, नियुक्ति एवं विवेचन के कारण विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन गया। प्रथम चूलिका के अध्ययन का निरूपण विविध उद्देशकों में हुआ है। प्रथम उद्देशक (आहार की शुद्धता) भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के समय गृहस्थ के घर में अभिगृहपूर्वक प्रवेश करती है। वे गृहस्थ के साथ प्रवेश नहीं करते हैं। अनैषणीय, अप्रासक, सचित्त आदि का ध्यान रखते हैं तथा आध:कर्म आदि सोलह दोषों का परिहार कर भिक्षा प्राप्त करते हैं। अशुद्ध आहार का किंचित् भी प्रयोग नहीं करते हैं। पिण्डैषणा के समय विकल्पों से रहित विचरण करते हैं।२०८ समस्त एषणीय पिंडों की एषणा विधिवत करते हैं। आगमों में आहार का नाम पिण्ड है।२०९ श्रमण आहार चर्या के समय राग-द्वेष से रहित आहार करते हैं वे निर्जरा प्रेक्षी बनते हैं ।२१० आहार आदि की प्राप्ति होने पर या नहीं होने पर भी अशुद्ध एषणा को नहीं प्राप्त होते हैं क्योंकि अशुद्ध आहार श्रमणों के लिये वर्जित है।२११ सप्त भंग के रूप में भी इस विवेचन को देखा जा सकता है१. अप्रत्युपेक्षितम् अप्रमार्जितम् (प्रतिलेखन किया प्रमार्जन नहीं।) २. अप्रत्युपेक्षितम् प्रमार्जितम् (प्रमार्जन हो, प्रतिलेखन नहीं।) ३. प्रत्युपेक्षितम् अप्रमार्जितम् (प्रतिलेखन, प्रमार्जन दोनों न हों।) ४. दृष्अत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितम् (दुष्पतिलेखन और दुष्पमार्जन हो ।) ५. दुष्प्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितम् (दुष्पतिलेखन और सुप्रमार्जन हो।) ६. सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितम् (सुप्रतिलेखन और दुष्पमार्जन हो ।) ७. सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितम् (सुप्रतिलेखन और सुप्रमार्जन हो।) भिक्षु अप्रासुक और अनैषणीय अन्न आदि को नहीं ग्रहण करते हैं।२१२ साधु इसी तरह एषणीय औषधी को भी ग्रहण करते हैं ।२१३ । इसी तरह पिण्डैषणा नामक यह प्रथम उद्देशक ज्ञान, दर्शन और चारित्र मार्ग पर चलते हुए श्रमण के लिये आहार की एषणा समितिपूर्वक ही करने का विचार प्रस्तुत करता है तथा सदैव भिक्षावृत्ति के नियमों को प्रयत्नशील बनाये रखता है। द्वितीय उद्देशक आहार ग्रहण की विधि एवं निषेध सम्बन्धी यह उद्देशक श्रमण को चेतावनी देता है कि ऐसे आहार को ग्रहण करे जो गृहस्थ के द्धारा या परिभुक्त या असेवित हो। पर्व आदि के समय में विशेष पूर्वक आहार ग्रहण करना चाहिए, ऐसा उल्लेख आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन ९२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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