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अग्र का मुख है, सहारा, अवलम्बन, प्रधान है, उसका सम्मुख अर्थ भी है ।२०२ जधन्य निवृत्ति के अन्तिम निषेध का नाम भी अग्र है ।२०३ अन्यत्र भी अग्र के विषय में कहा गया है कि जहाँ चारित्र है वहाँ अग्र संख्या होती है; क्योंकि श्रुत ज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती है इसलिये चारित्र की अपेक्षा श्रुत की इसमें प्रधानता है। अग्र शब्द का अर्थ मोक्ष भी है। वृत्तिकार ने अग्र के दो भेद किये हैं-१. द्रव्य अग्र और २. भाव अग्र। द्रव्य अग्र के आगम और नो आगम भेद किये हैं तथा भाव अग्र के प्रधान, प्रभूत और उपकार इस तरह तीन भेद किये हैं। इन भेदों के उपरान्त वृत्तिकार ने आचार को मोक्ष का कारण कहा है। अग्र चारित्र युक्त है। इसलिये आचार से जो अर्थ प्रतिपादित किया जाता है वही, आचारांग अर्थात् चारित्र अग्र है, मोक्ष है और इसी की साधना साधक करता है।
उपक्रम के बाद वृत्तिकार ने उपोद्घात का प्रारम्भ किया है। इसके अन्तर्गत वृत्तिकार ने संयम का एक भेद किया है। आध्यात्मिक दृष्टि से उसके दो भेद किये हैं। मन, वचन, काया की दृष्टि से तीन भेद किये हैं और चातुर्याम की दृष्टि से चार भेद किये हैं।२०४ वृत्ति में पाँच महाव्रतों का भी कथन किया है। तदनन्तर प्रत्येक चूलिका के विषय को प्रतिपदित किया है। पृथक्-पृथक् रूप में वृत्तिकार ने चूलिकाओं की विशेषताओं पर नय-निक्षेप आदि की दृष्टि से विवेचन किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूलिकायें हैं। प्रथम चूलिका में सात अध्ययन हैं, द्वितीय चूलिका में सात अध्ययन हैं, तृतीय चूलिका में एक अध्ययन है और चतुर्थ चूलिका में एक अध्ययन है। वृत्तिकार ने चूलिका के स्थान पर चूड़ा शब्द का प्रयोग किया है ।२०५ चूड़ा के भी कई भेद किये हैं, जैसे-द्रव्य चूड़ा, क्षेत्र चूड़ा, काल चूड़ा और भाव चूड़ा,०६ जिस तरह मणियों में मुकुट की चूड़ामणी२०७ शोभा को प्राप्त होती है, उसी तरह आचार कल्प के रूप में प्रस्तुत चूला या चूड़ा या चूलिका सर्वोपरि है। प्रत्येक चूड़ा की विषय-वस्तु का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैप्रथम चूलिका : प्रथम अध्ययन : पिण्डैषणा
भिक्षण शील भाव भिक्षु मूलोत्तर गुणों का धारी विविध प्रकार के अभिग्रहों से युक्त होकर आहार ग्रहण करता है। वे आहार के छ: कारणों को धारण करते हैं, जैसे-१. वेदन, २. वैयावृत्य, ३. ईर्यास्थान, ४. संयम स्थान, ५. प्राण वर्तिका, ६. धर्म चिन्ता।
- इन छ: विधियों के आधार पर भिक्षु समस्त एषणीय पदार्थों की एषणा करते हैं। औषधि, भूमि, स्थान आदि का भी विचार करते हैं।
वे आहार एषणा, शयैषणा, ईयेषणा, भाषैषणा, वस्त्रैषणा, पात्रेषणा, अवग्रहैषणा आदि के मार्ग पर चलते हुए महाव्रतों की सुरक्षा करते हैं। वे आचार से पवित्र सदैव आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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