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इस प्रकार सभी प्रकार के परीषहों को सहन करते हुए वे समता में ध्यानस्थ रहते
तृतीय उद्देशक
अनुपम सहिष्णुता का परिचायक यह उद्देशक विविध परिषहों को समभावपूर्वक सहन करने वाले साधक की दृढ़ता का परिचय देता है। साधक लाढ़ देश की वज्रमयी और शुभ्रमयी भूमि या अनार्य क्षेत्रों में विचरण करते हैं पर कभी अस्थिर नहीं होते
_ वृत्तिकार ने लाढ़ देश को जनपद विशेष के रूप में प्रस्तुत किया है। यह जनपद अनार्य आचरण हीन व्यक्तियों से भरा था। इसका समग्र भाग रूक्ष था। ९८ अनार्य देश के जितने भी जनपद थे, वहाँ सभी आचरणहीन एवं हिंसा से युक्त थे। महावीर ने ऐसे उस प्रान्त में विचरण करते हुए नाना प्रकार के उपसर्गों को सहन किया। नियत निवास-स्थान आदि की. प्रतिज्ञा से रहित वे कष्ट सहिष्णु बने रहे तथा ममत्वहीन होकर युद्ध में अग्रणी योद्धा की तरह कष्टों को सहन करते रहे, धैर्यता साधक की साधना का परम परिचायक है। चतुर्थ उद्देशक
तप आत्मा की शुद्धि है। सुसुप्त शक्तियों को जाग्रत करने वाला धर्म है • तथा आत्म-संशोधन है केवल बाह्य-तप नहीं है, आभ्यन्तर तप है। साधक बाह्य-तपों
को और साधना के मार्ग को अपनाते हुए इन्द्रियों के धर्म से विरक्त सदैव ही धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की साधना करते हैं। शरीर संशोधन, विरेचन, गात्र समर्दन स्नान, संवाहन, दन्त प्रक्षालन आदि जितने भी बाह्य कर्म थे वे उन्हें कल्प नहीं थे ।१९९ अर्थात् वे ऐसे कर्म नहीं करते थे, जिससे किसी भी तरह से जीवों का प्रतिघात हो। वे तो सदैव सभी क्रियाओं को समभावपूर्वक करते थे।
महावीर की इस चर्या में तपश्चरण के कई रूप सामने आये हैं, जैसे-नीरस आहार, पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक का आहार, मास-मास तक का आहार आदि कई प्रकार के आहारों का एवं निराहार आदि का भी विवेचन इस उद्देशक में है, ज्ञान मार्ग के प्रतीक तथा चारित्र मार्ग के साधन इस उद्देशक की यही विशेषता है। आगमों में उपलब्ध भगवान् की तपश्चर्या का विवरण इस प्रकार हैअनुक्रम तप का नाम संख्या दिवस संख्या पारणा दिवस १. पूर्ण छहमासी
१८० २. पाँच दिन कम छ: मास २ १७५ ३. चार मासिक
९ १०८० ४. त्रैमासिक
१८० आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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