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________________ क्षय करने हेतु जिस अचेतकता को धारण किया, वह निश्चित ही साधक के लिये आज भी पथ-प्रदर्शन करने वाली है । साधना में ईर्या समितिपूर्वक गमन, भाषा समिति का सम्यक् प्रयोग, उपकरण आदि उठाने रखने में सावधानी श्रेयस्कर मानी है । ज्ञात पुत्र ने संयम के मार्ग को अपनाकर कठिन से कठिन परीषहों को सहन किया । वे अनार्य देश में अनार्य लोगों के द्वारा पीटे जाने या किसी तरह से सताये जाने पर भी विचलित नहीं हुए अपितु वे समय का स्मरण करते हुए समय में लीन रहे । १९२ १९३ यह सत्य है कि साधक की सहिष्णुता समभाव को जन्म देने वाली होती है जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय इन सजीवों के अस्तित्त्व को जान कर उनके समारंभ का किंचित् भी विचार नहीं करता है वह साधना में विचलित नहीं होता है स्थावर-जीव और त्रस-जीव संसार में आते हैं, जन्म लेते हैं, मरते हैं, नाना प्रकार की योनियों को धारण करते हैं । यह प्राणियों का स्वभाव है, वे अपने कर्मों के अनुसार विविध योनियों को प्राप्त करते हैं। संसार में ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है जहाँ जीव ने जन्म नहीं लिया है। इस संसार की नृत्यशाला की रंगभूमि कहीं भी खाली नहीं है, जहाँ इस जीव ने नृत्य नहीं किया हो । १९४ परमार्थदर्शी ने सभी के प्रति समभाव को अनिवार्य बतलाया है । पारदर्शी, परमार्थदर्शी, पंथपेही एवं माहन किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखते हैं । यही इस उद्देशक का प्रथम उपधान है, आश्रय है, आधार है और यही साधक की उत्कृष्ट क्रिया है। द्वितीय उद्देशक गमानागमन के साथ कई प्रकार की शय्याएँ भी साधक के सामने आती हैं। साधक उन शयन और आसनों, एकान्त स्थानों, समाधि के लिये उपर्युक्त साधनों तथा धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के लिये पवित्र स्थानों आदि को ग्रहण करता है । इहलौकिक और पारलौकिक आदि सभी तरह के उपसर्ग शयन और आसन आदि के समय में आते हैं । वे भिन्न-भिन्न स्थानों में, रात्रि में या दिन में चिंतन या मनन में मौन वृत्ति, संयमी दृष्टिपूर्वक ही विचरण करते हैं । १९५ शयन और आसन साधक के उपकरण भी माने गये हैं। मनुष्य साधनाशील व्यक्ति को देख कर कभी उग्र रूप धारण कर लेता है, कभी कठोर बन जाता है और कभी इतना निर्दयी बन जाता है कि साधक को तुच्छ मान बैठता है । दण्ड, मुष्टि आदि से उस पर प्रहार कर देता है। एकाकी विचरण करने वाले या जंगलों में घूमने वाले व्यक्तियों पर कुत्ते छोड़ देते हैं या कभी स्वयं उन्हें सताते हैं । परन्तु प्रेक्षाशील साधक चिंतन-मनन में इतने मग्न होते हैं कि वे उस समय में या अन्य समय में भी चुपचाप धर्म को ही अपने जीवन का परम कर्त्तव्य मानते रहते हैं । १९६ आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन ८८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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