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________________ प्रकाश डाला है। संयमशील साधक इन्हें जानकर साधना में रत होता है। वे नाना प्रकार के परीषहों को सहन करते हैं। विषयों से परे किंचित् भी शीत के समय में अग्नि की आकांक्षा नहीं करते हैं। शरीर को तप्त करने के लिए किसी भी तरह के साधनों की ओर अग्रसर नहीं होते हैं। वे अग्नि आदि के साधनों को उपस्थित प्रकार के परिषहों को सहन करते हैं। विषयों से परे किंचित् भी शीत के समय में अग्नि की आकांक्षा नहीं करते हैं। वे अग्नि आदि के साधनों को उपस्थित किये जाने पर तो उन साधनों के प्रति उदासीन रहते हैं तथा सदैव ही परिषहों को सहन करते हुए आत्मा को जाग्रत करते हैं। चतुर्थ उद्देशक वृत्ति संयम से सम्बन्धित यह उद्देशक दृढ़ संकल्पों की ओर अग्रसर होने की शिक्षा देता है। साधक साधना में लीन वस्त्र, पात्र आदि की याचना नहीं करता है। साधक अपने कल्प को ही आधार बनाता है। साधक के लिए कौन से पात्र इष्ट हैं और कौन से पात्र इष्ट नहीं हैं? उनका विवेचन वृतिकार ने इस प्रकार किया है १. पात्र, २. पात्र बंधन, ३. पात्र स्थापन, ४. पात्र की शरीका (पुजनी), ५. पटल, ६. रजस्ताण और ७. गोच्छक । ___ ये सात पात्र निर्योग हैं। साधक के लिये सप्त पात्र निर्योग, तीन वस्त्र, रजोहरण और मुख वस्त्रिका इस प्रकार के बारह औघउपाधि अनिवार्य हैं ।१७९ शीत आदि उपद्रव में काय-क्लेश तप की आराधना होती है। १. अल्पप्रतिलेख, २. वेश्वसिक रूप, ३. तप की प्राप्ति, ४. लाघवप्राशस्त और ५. विपुल इन्द्रिय निग्रह ८° साधक की वृत्ति संयम में ये श्रेयस्कर हैं। ___ इस प्रकार साधक अपनी साधना के मार्ग से किंचित् भी विचलित नहीं होता है। वह उपसर्ग आदि को सहन करता हुआ आत्मा के परम कल्याणकारी तत्व की ओर अग्रसर होता है। संयम जीवन के कारणों में यदि किसी तरह का भी पतन दिखाई देता है तो वह दृढ़ संकल्प मरण की शरण को (समाधिमरण को) ग्रहण कर लेता है। पञ्चम उद्देशक-.. प्रतिज्ञा पालन साधक के लिये संयम साधना में उपयोगी है। स्थविर कल्प या जिन कल्प से युक्त साधक परिहार विशुद्धि चारित्र वाले होते हैं। वृत्तिकार ने इसी प्रसंग में श्रमण की बारह प्रतिमाओं का (प्रतिज्ञाओं का) विवेचन किया है।८१ श्रमण की बारह प्रतिमाएँ साधक को उच्च भूमिका पर पहुँचा देती हैं। जिससे साधक प्रतिज्ञापूर्वक साधना के मार्ग पर चलता है। प्रतिज्ञा का अखंड रूप से पालन करता है। प्रतिज्ञा पालन करने में पीछे नहीं हटता है वह क्रमशः आगे बढ़ता है। वह भक्त आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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