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________________ परिज्ञा मरण द्वारा समाधिमरण का आलिंगन कर लेता है। उसे यही हितकारी है, शुभकारी है, विमोक्ष का कारण है, जन्म-जन्मांतर से पार ले जाने वाला है। षष्ठ उद्देशक - इसमें साधक की मृत्युंजयी पर प्रकाश डाला गया है। साधक अर्हत् निरूपित मार्ग को समझकर समभाव का आचरण करता है ।१८२ लघुभाव को प्राप्त होकर यह चिंतन करता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ। इस प्रकार के एकत्व चिंतन को अपनाता है। वह द्रव्य और भाव, बाह्य एवं आभ्यन्तर लघुता को विकसित करता है। वह उपाधि से रहित सदैव ही समितिपूर्वक विचरण करता है, वह उद्गम, उत्पादन आदि दोषों का निषेध करता है। आहार शुद्धि के पाँच दोषों से दूर रहता है। संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूम और अकारण से रहित वह आत्मा को सर्वोपरि मानकर समस्त क्रियाओं को करता है। गुरु के समीप नियमपूर्वक चारों प्रकार के आहार का परित्याग करता है । मर्यादित स्थान की चेष्टा को नियमित करता है। करवट बदलना, उठना या अन्य शारीरिक क्रियाओं को धैर्यपूर्वक करता है। इस प्रकार विमोक्ष की ओर अग्रसर होने वाला साधक एकत्व भावना से लघुता को जन्म देता है। सप्तम उद्देशक उपधि की लघुता निराशक्ति को जन्म देती है। जैसे ही साधक को यह ज्ञान हो जाता है कि मेरा शरीर धर्म क्रिया में सहायक नहीं हो रहा है तो उस समय शरीरजन्य क्रियाओं को एवं सांसारिक बन्धनों के कारणों को लघु बनाने के लिये आत्मा में लीन हो जाता है । वह शरीर की प्रत्येक अवस्था को छोड़कर पादपोपगमन ८४ मरण की ओर अग्रसर हो जाता है।८५ इससे वह वीरों की तरह आगे बढ़ता है, देह के आकुंचन और प्रसारण करने का अवकाश जब तक बना रहता है तब तक पादपोपगमन मरण का सम्यक् रीति से पालन करता है तथा आत्मा को पूर्ण रूप से समाधि की ओर ले जाता है। इससे वह आत्मा के विशुद्ध परिणामों को प्राप्त करता इस तरह सम्यक् आराधना का मार्ग साधक के लिये आचार कल्प की ओर ले जाता है। अष्टम उद्देशक भक्त-परिज्ञा, इंगित-मरण और पादपोपगमन साधक की अन्तिम परिणति का कारण है। साधक प्रव्रज्या अङ्गीकार कर क्रमशः शिक्षा धारण करता है। सूत्र के अर्थ का अध्ययन करता है। उसमें परिपक्वता प्राप्त करता है। सूत्रकार ने २४ गाथाओं के माध्यम से साधु जीवन के श्रेष्ठतम साधनों की ओर इंगित किया है। इसमें साधक आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन ८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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