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लगता है तो उन दोषों के निवारणार्थ प्रायश्चित्त आदि क्रियाओं को करता है। विधिपूर्वक यह भी बोध कराया जाता है कि जीवन में जिस मार्ग को ग्रहण किया है, वह मार्ग आचार गोचर नहीं है तो वह मार्ग सम्यक् मार्ग नहीं कहा जा सकता
श्रमण का संपूर्ण पराक्रम ध्यान, अध्ययन, अध्यापन, श्रुत-अध्ययन, परिशीलन आदि के आधार पर ही होता है ।१७१ वे व्रत विषय से युक्त विवेकशील प्राणातिपात, मृषावाद और परिग्रहण७२ इन तीन यामों से रहित ज्ञान, दर्शन, चारित्र७३ रूप यामों में सदैव युक्त रहते हैं। जो क्रोधादि कषायों और पाप कर्मों से निदान रहित विचरण करते हैं तथा जो सदैव सभी दिशाओं और विदिशाओं के समारंभ को जानकर दण्डों से रहित होते हैं।७४ वे विमोक्ष मार्ग के पथिक हैं।
___ इस तरह यह उद्देशक साधक के लिये यह बोध कराता है कि साधना के मार्ग में चलते हुए किसी भी तरह से पतित न हो, सभारंभ से युक्त न हो। प्राणातिपात मृषावाद और बाह्य एवं आभ्यंतर परिग्रह से रहित साधक ज्ञान की उत्कृष्ट भूमिका परं बढ़ता हुआ आत्मशुद्धि की ओर अग्रसर होता है। मूलतः यह उद्देशक तीन यामों की जीवनचर्या का प्रतिपादक है। द्वितीय उद्देशक
साधक आधाकर्म आदि के सामान्य एवं उद्गम दोषों से रहित क्रियाओं को करता है। वह सभी प्रकार की औद्देशिक क्रियाओं से रहित मूल गुण पर दृष्टि केन्द्रित करके समिति पूर्ण विचरण करता है।७६ वह काल, देश, पात्र और कल्प को ध्यान में रखकर श्रद्धा से युक्त मन की शुद्धतापूर्वक दिये गये सात्विक आहार आदि को ग्रहण करता है।१७७ गृहस्थ कल्प के अनुसार ही साधक की संयम की भूमिका में सहभागी होता है। इस तरह श्रमण के श्रमणाचार के अनुकूल प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्हें यह संकेत दिया गया है कि साधक प्रत्येक वस्तु के ग्रहण करने में सावधानी रखे। ध्यान को बढ़ाने के लिए सम्यक् शुद्धिपूर्वक विचरण करें। यही आत्म गुप्त के लिए समनोज्ञ कर्तव्य है। तृतीय उद्देशक
इस उद्देशक के प्रारम्भ में समता धर्म८ की विवेचना करते हुए त्याग की उत्कृष्टता पर प्रकाश डाला गया है। समता योग के साधन प्रतिपादित किये गये हैं
(१) दया, (२) संयम और (३) तप।
समता योग से साधक क्षेत्रज्ञ, कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षणज्ञ, विनयज्ञ और अपरिग्रहज्ञ की व्याख्या करते हुए त्याग, संयम, परिश्रम और तप की विशेषताओं पर
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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