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नौका आदि के टूट जाने पर प्राणियों को शरण देता है, उसी तरह साधक को त्राण और शरण रूप I
चतुर्थ उद्देशक
धीर एवं मेधावी ऐसी क्रिया कदापि नहीं करेगा, जो विपरीत हो । वे धर्म को जानकर, धर्म मार्ग पर चलते हैं । १६० वे आत्मा की ओर अग्रसर होते हैं ।
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परन्तु इन्द्रिय और कषायों के वशीभूत साधक दुष्ट संकल्प को नहीं छोड़ते हैं, वे सदैव अनर्थ करते हैं । दुष्ट संकल्पों से घिरे हुए आत्मशक्ति को नष्ट करते हैं । वे प्रव्रज्जा लेकर हित और अहित को भूल जाते हैं जो अब तक सिंह के समान थे, वे गीदड़ के समान बन जाते हैं । उनका संपूर्ण वीतरागता का मार्ग आत्मसिद्धि से अलग, आत्मप्रशंसा की ओर हो जाता है, वे हिंसा का उपदेश देने से धर्म मानते हैं, हिंसक की अनुमोदना करते हैं। उनका धर्म शरीर की रक्षा करना है । वे शरीर की रक्षा करने में ही अपना समय व्यतीत कर देते हैं। १६१ वे साधक निन्दनीय हैं। अतः इस रहस्य को समझकर ज्ञानी पुरुष, मर्यादाशील साधक और मोक्षमार्ग में रत पुरुषार्थी एवं पराक्रमी बने सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश का अनुकरण करें।
पंचम उद्देशक
प्रस्तुत उद्देशक में श्रमण चर्या से सम्बन्धित जानकारियाँ दी गई हैं । सूत्रकार ने प्रारम्भिक सूत्र में कहा है कि श्रमण घरों के समीप गाँवों में या ग्राम के समीप, नगर में या नगर के समीप जनपदों में या जनपदों के समीप किसी भी प्राणी को दुःख देते हैं, उनसे स्पर्श करवाते हैं१६२ या क्षुब्ध करते हैं तो वह साधक की साधना मार्ग का कार्य नहीं है। वे तो केवल दृढ़तापूर्वक मार्ग में आने वाले उपसर्गों को सहन करते हैं। समत्व दर्शन से युक्त शुद्धता के गुणों को धारण करता है । उनके ऊपर कभी-कभी हास्य, प्रद्वेष, विमर्श और कुशील के कारणों से उपसर्ग आते हैं। कभी देव सम्बन्धी, कभी मनुष्य सम्बन्धी एवं कभी तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग आते हैं । १६३ वे धीर, वीर साधक समभावपूर्वक उन उपसर्गों को सहन करते हैं । साधक किसी का अहित नहीं करते हैं, वे विवेकपूर्वक चलते हैं, विवेकपूर्वक आहार आदि की प्रवृत्ति करते हैं । वे वीर गुणों से युक्त, अशुभ क्रियाओं से निवृत्त और सत् क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं । वे आलस्य और जड़ता से दूर रहते हैं । वे कषाय के उपशमन में प्रयत्नशील रहते हैं। उसके सामने विश्व का समस्त वातावरण भयानक रूप को लिये हुए उपस्थित रहता है । फिर भी वे उससे विचलित नहीं होते हैं । वे जीवनपर्यन्त विविध प्रकार के परीषहों को सहन करते हैं । वे बाह्य एवं आभ्यन्तर तप में प्रवृत्त होते हैं । १६४ इस प्रकार षष्ठ अध्ययन के पञ्चम उद्देशक में साधक की आत्मिक वीरता का परिचय दिया गया
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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