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________________ सभी प्रकार से मुण्डित होकर विचरण करता है। वह अचेलक संयमित तथा सभी तरह की इच्छाओं से विरत हित-अहित का विचार भी करता है ।१५५ मुण्डित का अर्थ केवल मुण्डन नहीं है, अपितु प्रयत्नशील होना भी है। वह चार प्रकार की भावना को भाता है १. एकान्त भावना, २. उपयोगमय जीवन की भावना, ३. वैराग्य भावना और ४. अचेलकता। ये चार रचनात्मक उपाय साधक को साधना में स्थिर करने वाले हैं। साधक की सहिष्णुता इसी से है ।१५६ जिस मार्ग में शुद्ध एषणा है, संयम की दृढ़ता है तथा मन, वचन और व्यवहार वीतराग धर्म की ओर प्रमुख है वह श्रेष्ठतम मार्ग है। उसने जिस मार्ग को अङ्गीकार किया है, वह मार्ग संकल्प-विकल्पों से रहित है। इसमें किसी भी तरह से छल नहीं है। तृतीय उद्देशक साधक शारीरिक तपश्चर्या आध्यत्मिक उन्नति के लिए करता है। जो अचेलक हैं वे सभी तरह के चेलकता से दूर रहते हैं, वे वस्तु के विषय में किसी भी तरह का विचार नहीं करते हैं ।१५७ अचेलकता की अवस्था में किसी भी तरह की बाह्य उपाधि नहीं रहती है। केवल समभाव या सम्यक्त्व भाव या समत्व भाव ही रहता है। समत्वदर्शी भिक्षण के समय में या किसी भी समय में आत्म विशुद्धि को नहीं छोड़ते हैं, वे अन्य जीवों की निन्दा भी नहीं करते हैं। चाहे वे एक वस्त्र वाले हो या दो वस्त्र वाले अथवा तीन या तीन से अधिक वाले हों, वे सदैव एक दूसरे की निन्दा से रहित तीर्थंकर के उपदेशपूर्वक ही विचरण करते हैं । ५८ परीषहों और संकटों के कारण कई साधकों को संयम में अरति (ग्लानि) उत्पन्न हो जाती है। कर्म प्रणति की भी यह विचित्रता ही कही जाएगी; क्योंकि कर्म निश्चित ही अधिक घने, चिकने एवं वज्र के समान भारी हैं जो ज्ञानी पुरुष को भी सन्मार्ग से हटाकर उन्मार्ग पर ले जाते हैं। कर्म परिणति अति विचित्र है।५९ लेकिन जो साधक पाप से विरत हैं, चिरकाल से संयम में रत हैं और जो निरन्तर शुद्ध अध्यवसाय करते हैं, उन्हें अरति उत्पन्न नहीं होती है एवं संयम में ग्लानि भी नहीं होती है। .. साधक दीप की तरह है, प्रकाशयुक्त है। दीप का अर्थ द्वीप भी है। उसके दो भेद गिनाये हैं-१. द्रव्य द्वीप और २. भाव द्वीप। ज्ञान द्वीप, भाव द्वीप है और संयम के साधन में बाह्य तत्व, द्रव्य द्वीप है। इसी क्रम में सूत्रकार के द्धारा प्रतिपादित “दीव” शब्द की व्याख्या करते हुए यह कथन किया है कि तीर्थंकर कथित धर्म द्वीप तुल्य है। जिस प्रकार द्वीप समुद्र में आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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