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प्रथम उद्देशक
"ओबुज्झमाणे इह माणवेसु, आधार से रे” । १४९
अर्थात् इस संसार में वही, नर है, जो मनुष्यों के बीच बोधिपूर्वक आख्यान करता है । समुपस्थित, निक्षिप्त दण्ड, समाधियुक्त, प्रज्ञावन्त पुरुष के लिए ही इस संसार में मुक्ति मार्ग है । वे ही पुरुष मुक्ति-मार्ग का उपदेश देते हैं जो महापराक्रमी होते हैं । पात्र को उपदेश देना हितकर होता है, अपात्र को उपदेश देना अहितकर होता है । इसलिए समाधियुक्त श्रमण मुक्तिमार्ग का कथन करते हैं, दुःख से छूटने का उपाय बतलाते हैं। जैसे कछुआ १५० अपनी इन्द्रियों को गोपन करके प्राणों की रक्षा करता है, उसी तरह साधना मार्ग में प्रवृत्त साधक दुष्कर्मों का परित्याग करके साधना मार्ग में रत रहते हैं । वृत्तिकार ने कहा है कि जीव के दुष्कर्मों के कारण ही जीव के शरीर में निम्न महारोग उत्पन्न होते हैं१५१–
१. गण्डमाता (कंठी रोग, कैंसर जैसा महारोग), २. कोड़ी, ३. राजंसी (दमा), ४. अपस्मार (मूर्च्छा, मृगी रोग), ५. नेत्ररोग, ६. शरीर की जड़ता, ७. लूला-लँगड़ा, ८. कुब्ज; ९. उदर रोग, १०. मूकपन, ११. सोजन शोथ, १२. भस्मक रोग, १३. कम्पन, १४. पीठ झुक जाना, १५. श्लीपद (हाथीपाँव) और १६. मधुमेह (प्रमेह ) ।
उपर्युक्त सोलह रोगों के अतिरिक्त अनन्त रोग, अनन्त व्याधियाँ, शूल आदि पीड़ा शस्त्र आदि के घाव, गिर पड़ने से उत्पन्न होने वाले घाव आदि से ग्रसित जीव विभिन्न कष्टों और यातनाओं का अनुभव करते हैं । १५२ कर्म की विचित्रता कहीं भी किसी भी जगह व्यक्ति को नहीं छोड़ती है। जीव चार गति एवं चौरासी लाख. योनियों में जन्म-मरण करता है और विविध दुःखों को भोगता है। संसार में चारों गतियों के परिभ्रमण के कारण से जीव कहाँ-कहाँ नहीं जाता है। नरक की असहनीय पीड़ा को भी उसे भोगना पड़ता है । तिर्यंच गति में भूख, प्यास, शीत, ताप, परतंत्रता, भय आदि की पीड़ा को भोगना पड़ता है ।
इस तरह की अनन्त पीड़ाओं को भोगता हुआ यह जीव, प्राणी मात्र का भक्षक हो जाता है। संसार के समस्त पर्यावरण को दूषित वातावरण में बदल देता है। इसलिये महाप्रज्ञावन्त इस तरह की प्रवृत्ति करते हैं । वे जीवन शुद्धि से पर्यावरण की रक्षा करते हैं एवं प्राणी मात्र के लिये अभय प्रदान करते हैं वे अहिंसक मार्ग को अपनाते हैं ।
द्वितीय उद्देशक
ब्रह्मचर्य में प्रवृत्ति, कुशील मार्ग से विरक्ति, परिषहों को सहन करने की क्षमता, स्नेहीजनों के पूर्व संयोगों को छोड़ने की प्रवृत्ति आदि से साधक का साधना मार्ग प्रबल होता है । १५३ जिन्होंने संन्यास मार्ग को धारण कर लिया है
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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