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________________ है। इसका उत्तर वृत्तिकार ने सहज रूप से इस प्रकार दिया है-यदि साधु वस्तु को लेने में, रखने में, स्थान पर स्थित रहने में, गमन करने में और किसी भी क्रिया में उपयोग लगाते समय प्रमाद करता है तो वह आरम्भ है, उसे आरम्भ लगता है ।२२२ यदि वह इन क्रियाओं को करते हुए अप्रमत्त है तो उसे आरम्भ नहीं लगता है। आरम्भ उपयोग अथवा अनुपयोग पर निर्भर करता है इसलिये साधु प्रत्येक क्रिया करते समय उपयोग युक्त अनारम्भ क्रियाओं को करता है।१२३ ___यह मार्ग आर्यों द्वारा (तीर्थंकरों द्वारा) कहा गया है। संयमी साधक, चरित्रशील मुनि छन्द को एवं दुःख आदि बार-बार सहन करता है। समत्व अर्थात् सम्यक् पर्याय सभी प्रकार के उपसर्गों, परीषहों एवं दुःख निवृत्ति के पश्चात् ही उत्पन्न होती है। साधक किसी भी प्रकार के परिग्रह से जुड़ा नहीं होता है। उसका तो केवल एक मात्र संयम अनुष्ठान ही प्रिय होता है।९२४ सर्वज्ञ प्रणीत सम्यक् मार्ग उसके जीवन का प्रमुख ध्येय होता है। तृतीय उद्देशक __यह उद्देशक निष्परिग्रह वृत्ति से सम्बन्धित है। सूत्रकार ने “अपरिग्गहावंती १२५ शब्द से मेधावी साधक के लिये साधक का धर्म समता धर्म बतलाया है ।१२६ समभाव से युक्त श्रमण सर्वज्ञ द्वारा कथित धर्म का अनुभव करता है, फिर सोचता है कि जो चंदन से भुजाओं पर लेप करता है, जो करवत (करो या कुठार से) उसकी भुजा को छेदता है, जो स्तुति करता है या जो उसकी निन्दा करता है उन सभी पर महर्षि पुरुष समभाव रखते हैं । १२७ समभाव में न कोई शत्रु होता है और न कोई मित्र ही होता है।१२८ चक्रवर्ती राजा अथवा तुच्छ से तुच्छ प्राणी समता धर्म को प्राप्त कर सकते हैं। समता आत्मा का स्वभाव है। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा की किरणें अभेद रूप से सर्वत्र गिरती हैं वहाँ रंक और राव का भेद नहीं रहता है। ऐसा समभाव का मार्ग उनके जीवन का परम ध्येय होता है । १२९ वृत्तिकारों ने साधकों की योग्यता और विकास की तरतमता बतलाने के लिये चतुर्भंगी ३० दृष्टि का भी प्रयोग किया है १: पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, २. पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, ३. नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपाती, ४. नों पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती। - इस तरह इस उद्देशक में जहाँ अपरिग्रही बनने की बात कही गई है, वहीं वृत्तिकार ने नय पक्ष को आधार बनाकर स्यादवाद सम्बन्धी व्यवस्था के आधार पर समभाव की सार्थकता का निरूपण किया है। समस्त प्रकार की वृत्तियों का विजेता, आत्मजयी अपरिग्महावंती, आणाकंरवी (आज्ञाकांक्षी) सुपेहा, (प्रेक्षावंत) निविण्णचारि (अनारंभी) वीरा, सम्मत्तदंसी आदि नामों से युक्त होते हैं। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन ७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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