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लोकसार के पञ्चम अध्ययन में छः उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक आत्म-साधना में रत ज्ञानी साधक की संयमी भावना को व्यक्त करता है। उसका विहार, उसका आचार, उसका ध्यान और उसका कृत कर्म क्या है? इस पर वृत्तिकार ने अलग-अलग दृष्टि से कथन किया है। प्रथम उद्देशक
जब तक जीव असंयत रहते हैं तब तक छ: काय के जीवों का समारम्भ करते हैं । ११५ उनमें से कितने ही मनुष्य प्रयोजन के लिये या बिना प्रयोजन के ही अज्ञानतावश उनका वध करते हैं उससे विविध कर्मों के फल को भोगते हैं जो स्वयं पीड़ा पहुँचाता है वह स्वयं पीड़ित होता है। यदि वह पृथ्वी का समारंभ करता है तो उसे पृथ्वी की पर्याय में जन्म लेना पड़ेगा। कर्म फल के अनुसार ही' कर्म की गति अपना कार्य करती है। अविवेकी, अज्ञानी एवं परमार्थ से अनभिज्ञ व्यक्ति का जीवन अस्थिर होता है। वह यदि कूट कर्मों को करता है तो वह मूढ़ है, विपरीत बुद्धि वाला है, मोह से युक्त है, जन्म और मरण के चक्र में फँसा हुआ है।११६
जो संयम को जानता है, वह संसारस्वरूप को जानता है। जिसने संशय को नहीं जाना, वह संसार को नहीं जान सकता है ।११७ संशय दो प्रकार का है-अर्थ संशय और अनर्थ संशय ।११८ अर्थ मोक्ष है और मोक्ष का उपाय भी है। मोक्ष में संशय नहीं है। परमपद के प्रतिपादन के कारण से उपाय होने पर संशय में प्रवृत्ति अवश्य होती है। यदि वह संशय से युक्त है तो अर्थ संशय है। अनर्थ संशय संसार का कारण है। यह मिथ्यात्व को उत्पन्न करने वाला है। इस प्रकार वेदना से युक्त संसार भी है।११९ संशय त्याज्य है, आत्मशान्ति का बाधक है। “संशयात्माविनश्यति” अर्थात् संशय से युक्त आत्मा विनाश को प्राप्त होता है। संसार मार्ग नहीं, संसार घड़ी यंत्र की तरह चलायमान है इसलिये प्रज्ञावन्त विषय कषायों से मुक्त होकर धर्म के मार्ग को जानने में सदैव प्रयत्नशील बने रहते हैं। द्वितीय उद्देशक
साधक पाप प्रवृत्ति से सर्वप्रथम निवृत्त होता है, आरम्भ का त्याग करता है इसलिये उसे अनारम्भजीवी कहते हैं ।१२० आरम्भ सावध अनुष्ठान से होता है, यह प्रमाद का कारण है इसलिये अनारम्भजीवी सभी प्रकार के आरम्भ से रहित होकर अप्रमत्त रूप में क्रियाओं को करता है ।१२१ चारित्र के विकास के लिये, आरम्भ के त्याग का उपदेश दिया है। दीक्षा अङ्गीकार करने पर भी आरम्भ हो सकता है, घर में रहते हुए भी पुत्र, कलत्र शरीर आदि की प्रवृत्ति से निवृत्त होने का भाव हो सकता है। इसका उत्तर वृत्तिकार ने सहज रूप से इस प्रकार दिया है-यदि साधु वस्तु को लेने में, रखने में, स्थान पर स्थित रहने में, गमन करने में और किसी भी क्रिया में
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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