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वे ही सच्चे पराक्रमी हैं, जो सम्यक् प्रवृत्ति से चलते हैं, सद्गुणों से युक्त होते हैं, सदैव प्रयत्नशील बने रहते हैं तथा जिनका कल्याण की ओर ही लक्ष्य बना रहता है। तत्वदर्शी की कोई उपाधि नहीं होती है। वे तपश्चरण पूर्व पूर्व-कर्मों के क्षय करने के लिये आत्मशुद्धि पर ही ध्यान देते हैं। पञ्चम अध्ययन : लोकसार नाम
वृत्तिकार की मूल भावना लोक के सार को कथन करना है। लोक का नाम संसार है। लोक और सार अर्थात् इन दो शब्दों के समासीकरण से लोक और लोक के सार का उद्देश्य दिखलाया है। लोक जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन छ: द्रव्यों के समुदाय का नाम है। लोक चतुर्दश रज्जु प्रमाण में है। इसमें नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध गति का अन्तरभाव है ।१०९ सार द्रव्य-सार और भाव-सार रूप है। निक्षेप की दृष्टि से नाम, स्थापना आदि रूप है। लोक का सार आगमों में धर्म कहा है, धर्म का सार ज्ञान बतलाया है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार विनिर्वाण बतलाया गया है। अतएव विनिर्वाण के लिये सद्धर्म का पालन आवश्यक है ।११०
वृत्तिकार ने लोकसार नामक पञ्चम अध्ययन की प्रारम्भिक भूमिका में हिंसक को आरम्भी और अहिंसक को अनारम्भी कहा है। हिंसक प्राणी को विषयारम्भक भी कहा है, वह सावध आरम्भ की प्रवृत्ति से होता है। अनारम्भी विषयों के आरम्भ से मुक्त लोक के सार को जानने वाला होता है। उनकी दृष्टि में लोक का सार परमार्थ ही रहता है। इसलिये वे आत्माभिमुख होकर प्रवृत्ति करते हैं। जीवन को धर्ममय बनाने के लिये सम्यक्त्व की आराधना करते हैं। सम्यक्त्व में भी चारित्र की उज्ज्वलता को समझाते हुए षट्काय जीवों के प्राणों की रक्षा को सर्वोपरि मानते हैं। सूत्रकार ने तत्वदर्शी की भावना को दर्शाते हुए यह कथन किया है कि जो संसार के स्वरूप को जानने वाला है वह निपुण है। वे कभी भी मन, वचन, काया से संसार के कारणों में बद्ध नहीं होते हैं । १२ वृत्तिकार ने चारित्र की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए निक्षेप दृष्टि से यह कथन किया है कि चर्या, चारित्र है, उसका आचरण वस्तु तत्व का बोधक है। इसलिये साधक प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के चारित्र को समझे, फिर मोक्षमार्ग के प्रधान कारण का चिन्तन करें। लोकसार अध्ययन में यह भी कथन किया है कि जो सम्यक् भाव से युक्त है वह धीर बुद्धि वाला है। उसके द्वारा की गई समस्त लोक की व्यवस्था चारित्र को प्रमुखता देने वाली है। चारित्रशील है जो शील १३ का आकांक्षी होता है, वह आगम के अनुसार प्रवृत्ति करता है। शील के १८ भेद संयम की भूमिका के लिये आवश्यक बतलाए हैं जो शीलवान होता है, वह मूल गुणों की वृद्धि करता है ।१४ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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