SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तप की आचरणीयता के विषय में कहा है, जिस प्रकार जीर्ण बने हुए कष्टों को अग्नि शीघ्र ही जला देती है, उसी तरह जिस तप के द्वारा अपने आप को जीर्ण कर लिया है वह शीघ्र ही सभी कर्मों को जला डालता है° आत्म समाहित आत्मा को कसता है, आत्मा को जीर्ण करता है।०१ वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपयोग से राग की और द्वेष की निवृत्ति करता है ।१०२ सम्यक् आचरण में स्थित साधु कर्मों को नष्ट कर देता है ।१०३ इस तरह तपश्चर्या इच्छाओं का निरोध करती है ।१०४ तत्वार्थ-सूत्र में इच्छाओं का रोकना तप कहा गया है। आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में सर्वत्र यही कथन किया जाता है। इच्छाएँ वासनाओं को उत्पन्न करती हैं, इसलिये संयम में अप्रमत्ता, अनासक्ति और आत्मनिष्ठा रखते हुए इच्छाओं का निरोध करना चाहिए। राग निवृत्ति और द्वेष निवृत्ति विवेक बुद्धि को जाग्रत करने वाली है। वह क्रोध के मूल में जलने वाले मनुष्य के दुःखों का अन्त करने वाली है। संसार में प्रत्येक पदार्थ विवेक बुद्धि पर आधारित होता है। साधक क्रोध का निरोध करने, पाप कर्मों से निवृत्ति होने एवं कषायों से छूटने के लिये सभी तरह की इच्छाओं का उपशमन करता है। पाप कर्मों से रहित निदान रहित साधक परम सुख को प्राप्त । करते हैं ।१०५ इस तरह तत्वदर्शी संयम साधना को भी सर्वोपरि मानता है। सम्यक्त्व उसका प्रमुख ध्येय होता है। चतुर्थ उद्देशक इस उद्देशक में संयम की स्थिरता के लिये तप की प्रधानता को अनिवार्य माना है। इस संसार को पूर्व संयोगों में मुक्त करके शरीर का किंचित् दमन करें। फिर विशेष दमन करें। तदनन्तर पूर्ण रूप से शरीर का दमन करें। कर्मों के दमन करने के लिये शान्त चित्त साधक अपने स्वरूप में विचरण करता है । पाँच समिति से युक्त सद्गुण का आचरण करता है । सूत्रकार ने साधक के इस मार्ग को अत्यन्त कठिन बतलाया है ।१०६ इससे यह ध्वनित होता है कि साधना का पथ सरल नहीं है। अग्नि में जल मरना, पर्वत से कूद पड़ना और समुद्र में डूबना सरल है, परन्तु चित्त वृत्तियों पर पूरा नियंत्रण रखना अत्यन्त कठिन है। परन्तु साधक आत्मस्वरूप में स्थित होकर उन्हें हरा देते हैं। ब्रह्मचर्य आत्मस्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये अनिवार्य एवं परम आवश्यक है । “ब्रह्म” का अर्थ ईश्वर या आत्मा भी है । “ब्रह्मणि चर्यते अनेन इति ब्रह्मचर्यम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार आत्मा में-परमात्मा में जिसके द्वारा रमण किया जाता है वह ब्रह्मचर्य है । जैन आगमों में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। सूत्रकृतांग सूत्र में सभी तपों में ब्रह्मचर्य को परम तप माना हैं। प्रश्न व्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल बतलाया है ।१०८ ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से अन्तरकरण प्रशस्त, गंभीर और स्थिर हो जाता है । श्रमण ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, क्योंकि वह ७४ आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy