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________________ द्वितीय उद्देशक इस उद्देशक में मिथ्यात्ववाद-मिथ्या मतों का खण्डन है। सम्यक्त्ववाद का प्रतिपादन है। सम्यक्त्व अर्थात् सम्यक-दर्शन का मूल प्रतिपादक अध्ययन सम्यवाद के विचार से मोक्ष, मोक्ष तक के कारण, संसार, संसार के कारणों आदि पर विचार को प्रस्तुत करता है।९५ सूत्रकार के सूत्र पर अपना मन्तव्य देते हुए वृत्तिकार ने आस्रव आदि की व्याख्या की है।९६ इस व्याख्या में नय विवक्षा/आस्रव के भङ्गों के आधार पर चार भेद इस प्रकार किये हैं १. जो आस्रव हैं वे परिस्रव हैं, २. जो आस्रव हैं व अपरिस्रव हैं. ३. जो अनास्रव हैं वे परिस्रव हैं, ४. जो अनास्रव हैं वे अपरिस्रव हैं। चार भङ्ग के पश्चात् कर्म के पाँच कारण भी गिनाये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।८ इनका भंग विवक्षा से निरूपण किया हो।९ आस्रव, संवर और निर्जरा का स्वरूप. उससे होने वाली कर्म, कर्म की प्रवृत्ति आदि का कथन भी इसमें है। इन्द्रियों के अनुकूल कर्म रूपी मोह में डूबे हुए व्यक्ति ऐसे कर्म करते हैं कि वे संसार से मुक्त न होकर संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। आशा से बँधे हुए जन्म-मरण करते हैं। पुनः बन्ध को प्राप्त होते हैं, इस तरह भव परम्परा का कहीं भी अन्त नहीं होता है। साधक साधना मार्ग में रत होकर ज्ञान मार्ग पर चलता है तथा सर्वज्ञ प्राणी धर्म के सार को समझ कर सम्यक्त्व मार्ग पर अग्रसर होता है। समस्त पापानुबन्ध को दुखकारी मानता हुआ उनसे मुक्त होने के लिये प्रयत्नशील बना रहता है। वृत्तिकार ने दुःख, दुःख के कारण, धर्म भावना आदि की विस्तार से चर्चा की है। श्रमण संसार समुद्र में ऊबते हुए प्राणियों को सहारा देने वाले द्वीप है। प्राणस्वरूप हैं, शरण देने वाले हैं एवं जगत के चराचर प्राणियों के लिये मङ्गलमय कामना करने वाले हैं। तृतीय उद्देशक- . इस उद्देशक में तपश्चरण की प्रधानता का वर्णन है, क्योंकि तपश्चरण आत्मशुद्धि का साधन माना जाता है। समत्वदर्शी, सम्यक्त्वदर्शी या समत्तदर्शी अपनी प्रज्ञा से कर्म बन्ध और उनकी मूल प्रवृत्तियों आदि का क्षय कर देता है। वृत्तिकार ने इन्हीं कर्म प्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले कारणों पर भी प्रकाश डाला है। उपयोग अर्थात् यत्नपूर्वक क्रियाओं को करने के लिये पाप बन्ध नहीं होता है। जो यत्नपूर्वक चलता है, यत्नपूर्वक बैठता है, यत्नपूर्वक खाता है और यत्नपूर्वक ही बोलता है उसका जितना भी. समारंभ होता है वह यत्नपूर्वक होता है। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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