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चतुर्थ उद्देशक
परिपक्व ज्ञान से अपूर्ण, वय से वृद्ध साधु एक ग्राम से दूसरे ग्राम अकेला विचरण करता है तो वह निन्दनीय है, अयोग्य है । १३१ अपरिपक्वता दो प्रकार की
१. श्रुतकृत अपरिपक्वता, २. वयकृत अपरिपक्वता ।
जो साधु ज्ञान और वय में अपरिपक्व हैं उसकी एक चर्या निषेध है जिसने आचार कल्पों का अध्ययन नहीं किया है वह स्थिर कल्पी साधु श्रुत के अभ्यासी हैं । वृत्तिकार द्वारा प्रस्तुत चतुर्थंगी ३२ दृष्टव्य है—
१. श्रुत तथा वय से अव्यक्त, २. श्रुत से अव्यक्त, वयं से व्यक्त, ३. श्रुत से व्यक्त, वय से अव्यक्त, ४. श्रुत से व्यक्त, वय से व्यक्त ।
वृत्तिकार ने सर्वज्ञ की वाणी को सर्वोपरि मानकर एकल विहारी का निषेध किया है और उन्हें गच्छ में रहने का संकेत भी किया है। अन्यथा उस एकल विहारी के लिये निम्न दोष लगेंगे१३३ –
१. षट्काय जीवों के वध का भागी होगा, २. स्त्री, श्वान एवं अन्य विरोधियों के दुःख का भागी होगा, ३. एषणा समिति में दोष उत्पन्न करेंगे, ४. महाव्रत भी भङ्ग हो सकते हैं
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इत्यादि कुछ महत्त्वपूर्ण साधक की क्रियाओं के अतिरिक्त गुरु की दृष्टि, गुरु की आज्ञा, गुरु का उपदेश आदि का अभाव भी एकल विहारी की अवस्था में रहेगा । स्वच्छंद व्यक्ति के कारण लालसा और वासना जैसी विकार वृत्तियाँ भी उत्पन्न होंगी । भोगों में लिप्सा आदि भी उत्पन्न होगी ।
पञ्चम उद्देशक
इस उद्देशक के प्रारम्भ में ही कहा था कि आचार्य गम्भीर, पवित्र, उदार एवं निज स्वरूप की दृष्टि से भरे हुए तालाब की तरह, समतल भूमि की तरह एवं स्वच्छ स्रोत की तरह हैं । १३४ सूत्रकार ने “ सोयमज्सगए ” विशेषण से आचार्य के ज्ञान भण्डार की विपुलता का परिचय कराया है, जो अपने जीवन के विकास में लगे हुए हैं एवं जो श्रुत की आराधना कर विशेष बल देते हैं, वे श्रद्धा, विवेक, बुद्धि और आगम दृष्टि वाले हैं। नय व्यवस्था में भी श्रुत की प्रधानता को दर्शाया है क्योंकि आचार्य श्रुत के आराधक होते हैं, वे सम्यक्त्व की आराधना करते हैं । वे सच्चे हैं, निःशंक हैं१३६ तत्वों की यथार्थता का बोध कराने वाले हैं एवं शंका, विचिकित्सा आदि से रहित हैं। श्रद्धा अन्तःकरण का विषय है, श्रद्धा का स्थान समनुज्ञ है अर्थात् प्रिय, उच्च है। श्रद्धा से सम्बन्धित चार भाग इस प्रकार हैं१३८
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आचाराङ्ग - शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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