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शुद्ध परिणामों पर आधारित होता है।८६ जहाँ समभाव है वहाँ त्याग है और वही, मुनिधर्म है। मुनि समय का (आगमों का, शास्रों का ) पर्यालोचन करता है। आत्मा की प्रसन्नता के लिये मनोनिग्रह एवं आत्म गुप्त" बनने का प्रयत्न करता है वह गति और अगति को जानकर राग-द्वेष को दूर करता है। उसका समस्त प्रयत्न धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान पर आधारित होता है वह अपनी ही शक्ति को केन्द्रित करके सोचता है
__ "तुममेव तुमं मित्ते कि बहियां मित्तमिच्छसि?" .... अर्थात् “तू स्वयं ही तेरा मित्र है, बाहर के मित्र की इच्छा क्यों करता है" ? आत्मा ही अपना मित्र है। आत्मा की परिणति जब दुष्पवृत्ति की ओर अग्रसर होती है उस समय वह स्वयं की अमित्र बन जाती है तथा शुभ एवं शुद्ध परिणति के कारण अपना मित्र बन जाती है ९ इस प्रकार की समभाव की दृष्टि मुनि की होती है। समभाव युक्त मुनि कर्म के विचित्र परिणामों को सहन करता है, उसके फल को भोगता है। उससे दुखित नहीं होता है, वह ज्ञान सहित आत्म हित की ओर अग्रसर होता है। कर्तव्य और अकर्तव्य की सन्धि को जानता है एवं सदैव प्रयत्नशील समदृष्टि बना हुआ मोक्ष साधना में रत रहता है। चतुर्थ उद्देशक- चतुर्थ उद्देशक कषाय त्याग की विशेषता को बतलाने वाला है। सूत्रकार ने क्रोध, मान, माया, लोभ-इन' चार कषायों से कर्मास्रव होने की बात कही है° कर्मास्रव के कारण समभाव पर केन्द्रित नहीं रह पाता है। वृत्तिकार ने कषायों की तीव्रता का उदाहरण इक्षु पुष्प के समान निष्फल बतलाया है।
"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ॥"
अर्थात् “जो एक को जानता है वह सब को जानता है और जो सब को जानता है वह एक को जानता है ।" वृत्तिकार ने इस सूत्र पर दो प्रकार की दृष्टि प्रस्तुत की है। एक सामान्य पदार्थ से सम्बन्धित है और दूसरी सर्वज्ञ से सम्बन्धित है। जो अतीत, अनागत और वर्तमान पर्याय को जानता है वह संसार से परे, जन्म-मृत्यु से रहित समस्त वस्तु का ज्ञायक सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ आत्मज्ञ होते हैं। आत्मा को जानते हैं और लोक-लोक के पदार्थ उस ज्ञान स्वभावी आत्मा में प्रतिबिम्बित होते हैं। वे समस्त पदार्थों और उनकी समस्त पर्यायों के ज्ञाता होते हैं। सर्वज्ञता आत्म-साक्षात्कार करने से होती है। वे ही महायान में बैठते हैं तथा वे ही कोहोदंशी मानदंशी इत्यादि अनेक प्रवृत्तियों को जानने वाले होते हैं। आत्मशुद्धि की पराकाष्ठा से सर्वज्ञता प्राप्त होती है। इन्हीं भावों से परिपूर्ण यह उद्देशक कषाय शमन, सर्वज्ञता, श्रद्धा और वीतरागता को बतलाता है।९२ आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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