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द्वितीय उद्देशक
इस उद्देशक में भाव निद्रा का अशान्तिमय विपाक और भाव जागरण के लिये आवश्यक त्याग मार्ग का निरूपण किया है। जाति और वृद्धि संसार के कारण हैं। जाति का नाम प्रसूति है और बाल, कुमार, यौवन, वृद्धावस्था का अवसान वृद्धि है। जाति और वृद्धि दुःख हैं, उससे संतप्त जन्म, जरा और मरण से मुक्त नहीं हो पाता है। जन्म और मरण कर्म के कारण हैं। यह समझकर आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त आत्मस्वरूप में स्थित होवे। वह निष्कर्मदर्शी, सर्वदर्शी और सर्वज्ञानी की शरण में जावे।७८
___ "मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसई।"७९
अर्थात् मेधावी/तत्वदर्शी समस्त संसार रूपी अटवी में परिभ्रमण करने के कारणों को नष्ट कर देता है। वह यह जानते हैं कि संसाररूपी वृक्ष कषायों से सिंचित होकर हरा-भरा रहता है। यदि संसार रूपी वृक्ष को सुखाने की भावना है तो इन कषायों का नाश करना पड़ेगा। चार कषायों में क्रोध और मान द्वेषमूलक हैं और माया एवं लोभ रागमूलक हैं। यहाँ क्रोध का कारण मान बतलाया गया है। मान के कारण ही जीव को क्रोध आता है। क्रोध के मूल में अहंकार छिपा है इसलिये द्वेषमूलक कषायों का क्षय करना चाहिए। रागमूलक कषाय में लोभ प्रधान है। लोभ अनिष्ट का सूचक है। लोभ के कारण सातवीं नरक भूमि को प्राप्त होना पड़ता है कहा है
"मच्छा मणुआ यं सत्तमि पढवी"८१ अर्थात् जीव मनुष्य और मत्स लोभ के अभिभूत होकर सातवीं पृथ्वी को प्राप्त होते हैं। जो मोक्षार्थी हैं वे मोक्ष के कारणं भूत मार्ग में प्रवृत्त होते हैं।८२ तृतीय उद्देशक
इस उद्देशक में त्याग के रहस्य को प्रतिपादित किया गया है। निष्क्रियता मात्र त्याग नहीं है त्याग का अर्थ है-सत् क्रियाओं से सदा जागृत रहना। इसलिये ज्ञानी पुरुष त्याग मार्ग अङ्गीकार करके सतत सावधान रहता है। वह सोचता है कि जैसा स्वयं को सुख प्रिय है, वैसा अन्य को भी प्रिय है। इस प्रकार के संभाव से पाप नहीं होता है।
भूमि में दो प्रकार की संधियों का उल्लेख किया है१. द्रव्य सन्धि और २. भाव सन्धि ।
द्रव्य सन्धि भित्ति में छिद्र की तरह है और भाव सन्धि दर्शन, मोहनीय के क्षयोपशम और अन्य कर्मों के उपशान्त एवं सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर होती है। वृत्तिकार ने सन्धि' की विस्तृत व्याख्या की है तथा यह समझाया है कि मुनि धर्म ७०
आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन
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