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आवश्यकनियुक्तिः
संसारनिस्तरणोपायम् । दिशन्तु ददतु । एवं स्तवः क्रियते । अर्हन्तो लोकोद्योतकरा धर्मतीर्थकरा जिनवरा: केवलिन उत्तमाश्च ये तेषां कीर्तनं प्रशंसनं बोधिं मह्यं दिशन्तु प्रयच्छन्तु । अथवा एते अर्हतो धर्मतीर्थकरा लोकोद्योतकरा: जिनवरा: कीर्तनीया उत्तमाः केवलिनो मम बोधिं दिशन्तु । अथवा अर्हन्तः सर्वविशेषणविशिष्टा: केवलिनां च कीर्तनं मह्यं बोधिं प्रयच्छन्त्विति सम्बन्धः ॥३८॥
एतैर्दशभिरधिकारैश्चतुर्विंशतिस्तवो व्याख्यायत इति कृत्वादौ तावल्लोकनिरुक्तिमाह
लोयदि आलोयदि पलोयदि सलोयदित्ति एगत्थो । जह्या जिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ।।३९।। ___ लोक्यते आलोक्यते प्रलोक्यते संलोक्यते इति एकार्थः ।
यस्माज्जिनैः कृत्स्नं तेन एष उच्यते लोक: ॥३९॥ लोक्यते आलोक्यते प्रलोक्यते संलोक्यते दृश्यते इत्येकार्थः । कैर्जिनैरिति तस्माल्लोक इत्युच्यते ? कथं छद्मस्थावस्थायां-मतिज्ञानश्रुतज्ञानाभ्यां लोक्यते दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवावधिज्ञानेनालोक्यते पुद्गलमर्यादारूपेण दृश्यते
वाले को जिन कहते हैं और उनमें वर अर्थात् जो प्रधान हैं वे जिनवर कहलाते हैं । सर्वज्ञदेव को अर्हन्त कहते हैं तथा सर्व को प्रत्यक्ष करने वाला जिनका ज्ञान है वे केवली हैं। इन विशेषणों से विशिष्ट अर्हन्त भगवान् उत्तम हैं, प्रकृष्ट हैं, सर्व पूज्य हैं । ऐसे जिनेन्द्र भगवान् मुझे संसार से पार होने के लिए उपायभूत ऐसी बोधि प्रदान करें । इस प्रकार से यह स्तव किया जाता है ॥३८॥
प्रसंग-पूर्वोक्त गाथा में इन दस अधिकारों द्वारा चतुर्विंशतिस्तव का कथन किया जाता है । इनमें प्रथम लोक शब्द की निरुक्ति कहते हैं
गाथार्थ-लोकित किया जाता है, आलोकित किया जाता है, प्रलोकित किया जाता है और संलोकित किया जाता है, ये चारों क्रियाएँ एकार्थक हैं अर्थात् एक दर्शन (देखना) अर्थवाली हैं । जिस हेतु से जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सब कुछ अवलोकित किया जाता है इसीलिए यह 'लोक' कहा जाता है ॥३९॥
आचारवृत्ति-लोकन करना (अवलोकन करना), आलोकन करना, प्रलोकन करना, संलोकन करना और देखना-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं । जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सर्वजगत् लोकित-अवलोकित कर लिया जाता है, इसीलिए इसकी 'लोक' यह संज्ञा सार्थक है । यहाँ पर इन चारों क्रियाओं का पृथक्करण
१.
क एयट्टो ।
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