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आवश्यकनियुक्तिः
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चतुर्विंशतिस्तवसहितं क्षेत्रं कालश्च क्षेत्रस्तवः कालस्तवश्च । भावस्तव आगम-नोआगमभेदेन द्विविधः । चतुर्विंशतिस्तवव्यावर्णनप्राभृतज्ञायी उपयुक्त आगमभावचतुर्विंशतिस्तवः । चतुर्विंशतिस्तवपरिणतपरिणामो नोआगमभावस्तव इति । भरतैरावतापेक्षश्चतुर्विंशतिस्तव उक्त: । पूर्वविदेहो परविदेहापेक्षस्तु सामान्यतीर्थकरस्तव इति कृत्वा न दोष इति ॥३७॥
अत्र नामस्तवेन भावस्तवेन प्रयोजनं सर्वैर्वा प्रयोजनम् । तदर्थमाहलोगुज्जोए धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते । कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोहिं मम दिसंतु ।।३८।।
लोकोद्योतकरा. धर्मतीर्थकरा जिनवराश्च अर्हतः ।
कीर्तनीया: केवलिन एवं च उत्तमबोधिं मह्यं दिशंतु ॥३८॥ लोको जगत् । उद्योतः प्रकाश: । धर्म उत्तमक्षमादिः । तीर्थं संसारतारणोपायम् । धर्ममेव तीर्थं कुर्वन्तीति धर्मतीर्थकराः । कर्मारातीन् जयन्तीति जिनास्तेषां वरा प्रधाना जिनवरा: । अर्हन्त: सर्वज्ञाः । कीर्तनं प्रशंसनं कीर्तनीया वा केवलिन: सर्वप्रत्यक्षावबोधाः । एवं च । उत्तमाः प्रकृष्टाः सर्वपूज्या: । मे बोधिं
: चतुर्विंशति तीर्थंकरों के स्तवन से परिणत हुए परिणाम को नो-आगम भाव-स्तव कहते हैं।
.. भरत और ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा यह चतुर्विंशति स्तव कहा गया है । किन्तु पूर्व-विदेह और अपरविदेह की अपेक्षा से सामान्य तीर्थंकर स्तव समझना चाहिए । इस प्रकार के कथन में कोई दोष नहीं है । अर्थात् पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में ही चतुर्थ काल में चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं किन्तु एक सौ आठ विदेह क्षेत्रों में हमेशा ही तीर्थंकर होते रहते हैं, अत: उनकी संख्या का कोई नियम नहीं है । उनकी अपेक्षा से इस आवश्यक को सामान्यतया तीर्थंकर स्तव भी कहें तो इसमें कोई दोष नहीं है ॥३७॥
गाथार्थ-लोक में उद्योत करने वाले, धर्मतीर्थ के कर्ता, जिनेश्वर, अर्हन्त, केंवली, प्रशंसा के योग्य हैं । वे मुझे उत्तम बोधि प्रदान करें ॥३८॥ - आचारवृत्ति-लोक अर्थात जगत में उद्योत अर्थात प्रकाश को करने वाले लोकोद्योतकर कहलाते हैं । उत्तमक्षमादि को धर्म कहते हैं और संसार से पार होने के उपाय को तीर्थ कहते हैं अत: यह धर्म ही तीर्थ है । इस धर्मतीर्थ को करने वाले अर्थात् चलाने वाले धर्म तीर्थंकर कहलाते हैं । कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने
१. क पूर्वविदेहापेक्षस्तु ।
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