SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यकनियुक्तिः यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवा मन:पर्ययज्ञानेन प्रलोक्यते विशेषेण रूपेण दृश्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । अथवा केवलज्ञानेन जिनैः कृत्स्नं यथा भवतीति तथा संलोक्यते सर्वद्रव्यपर्यायैः सम्यगुपलभ्यते यस्मात्तस्माल्लोकः । तेन कारणेन लोकः स इत्युच्यत इति ॥ ३९॥ नवप्रकारैर्निक्षेपैर्लोकस्वरूपमाह णामट्ठवणं दव्वं खेत्तं चिन्हं कसायलोओ य । भवलोगो भावलोगो पज्जयलोगो य णादव्वो ।। ४० ।। नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं चिन्हं कषायलोकश्च । भवलोको भावलोकः पर्यायलोकश्च ज्ञातव्यः ॥४०॥ ३३ नात्र विभक्तिनिर्देशस्य प्राधान्यं प्राकृतेऽन्यथापि वृत्तेः । लोकशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । नामलोकः स्थापनालोको द्रव्यलोकः क्षेत्रलोकश्चिह्नलोक: कषायलोको भवलोको भावलोकः पर्यायलोकश्च ज्ञातव्य इति ॥ ४० ॥ करते हु भी टीकाकार स्पष्ट करते हैं । छद्मस्थ अवस्था में मति और श्रुत इन दो ज्ञानों के द्वारा यह सर्व "लोक्यते” अर्थात् देखा जाता है इसीलिए इसे 'लोक' कहते हैं । अथवा अवधिज्ञान द्वारा मर्यादारूप से यह 'आलोक्यते' आलोकित किया जाता है । इसीलिए यह 'लोक' कहलाता है । अथवा मन:पर्ययज्ञान के द्वारा 'प्रलोक्यते' विशेष रूप से यह देखा जाता है अतः 'लोक' कहलाता है । अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्री जिनेन्द्र भगवान् इस सम्पूर्ण जगत् को जैसा है वैसा ही 'संलोक्यते' संलोकन करते हैं अर्थात् सर्व द्रव्य पर्यायों को सम्यक् प्रकार से उपलब्ध कर लेते हैं— जान लेते हैं । इसलिए इसको 'लोक' इस नाम से कहा गया है || ३९ ॥ नव प्रकार के निक्षेपों द्वारा लोक का स्वरूप कहते हैं - गाथार्थ – नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, चिह्न, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक - ये नव (९) लोक जानना चाहिए ||४०|| Jain Education International आचारवृत्ति—यहाँ इस गाथा में लोक के निर्देश की विभक्ति प्रधान नहीं है क्योंकि प्राकृत में अन्यथा भी वृत्ति देखी जाती है । इनमें प्रत्येक के साथ 'लोक' शब्द को लगा लेना चाहिए । जैसे कि नामलोक, स्थापनालोक, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, चिह्नलोक, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोकइन भेदों से लोक की व्याख्या नव प्रकार की हो जाती है ॥४०॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy