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________________ आवश्यक नियुक्तिः यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय आवश्यकनिर्युक्तिरित्युच्यते । सा च षट्प्रकारा भवति ॥ १४ ॥ तस्य (स्या) भेदान् प्रतिपादयन्नाह— सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काउस्सग्गो हवदि छट्टो ।। १५ ।। सामायिकं चतुर्विंशस्तवः वंदना प्रतिक्रमणं । प्रत्याख्यानं च तथा कायोत्सर्गो भवति षष्ठः ||१५|| ११ समः सर्वेषां समानो यो यः सर्गः पुण्यं वा समायस्तस्मिन् भवं, तदेव प्रयोजनं पुण्यं तेन दीव्यतीति वा सामायिकं समये भवं वा सामायिकं । चतुर्विंशतिस्तवः चतुर्विंशतितीर्थकराणां स्तवः स्तुतिः । वन्दना सामान्यरूपेण स्तुतिर्जयति भगवानित्यादि, पंचगुरुभक्तिपर्यन्ता पंचपरमेष्ठिविषयनमस्कारकरणं वा शुद्धभावेन । अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है उसको बतलाने वाले को पृथक्-पृथक् स्तुति रूप से “जयति भगवान् ” – इत्यादि के प्रतिपादक जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र हैं जो कि न्यायरूप हैं, उन्हें आवश्यक नियुक्ति कहते हैं । उस आवश्यक निर्युक्ति के छह प्रकार हैं ||१४|| आवश्यक के छह भेदों का प्रतिपादन करते हैं Jain Education International गाथार्थ – सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग - ये छह आवश्यक हैं ॥१५॥ आचारवृत्ति - 'सम' अर्थात् सभी का समान रूप जो 'अय' अर्थात् सर्ग अथवा पुण्य है. उसे 'समाय' कहते हैं ( पुण्य का नाम 'अय' भी है अतः पुण्य के पर्यायवाची शब्द के सम+अय = समाय बना है । उसमें जो होवे सो सामायिक है । यहाँ “समाय” में इकण् प्रत्यय होकर बना है) अथवा वही पुण्य प्रयोजन है जिसका अथवा 'तेन दीव्यति' उस समय से शोभित होता है (इस अर्थ में भी इकण् प्रत्यय हो गया है) अथवा 'समय' में जो हो उसे प्रथम (१) सामायिक आवश्यक कहते हैं । (२) चौबीस तीर्थकरों की स्तुति को चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । (३) सामान्यरूप से "जयति भगवान् हेमांभोज-प्रचार विजृंभिता-" इत्यादि चैत्यभक्ति से लेकर पंचगुरुभक्ति पर्यन्त विधिवत् जो स्तुति की जाती है उसे वन्दना कहते हैं अथवा शुद्ध भाव से पंचपरमेष्ठी विषयक नमस्कार करना वन्दना आवश्यक है । (४) पूर्व में किये गये दोषों का निराकरण करना और व्रतादि का उच्चारण करना अर्थात् व्रतों के दण्डकों का उच्चारण करते हुए उन सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिए “मिच्छा मे दुक्कडं' बोलना सो प्रति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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