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सत्य।
प्रयुक्त ‘पाणाइवायं' की अपेक्षा मूलाचार में प्रयुक्त ‘पाणारम्भ' शब्द अधिक प्राचीन तथा उपयुक्त है ।
२. मूलाचार में सामायिक के प्रयोजन में कहा है 'गिहत्थधम्मोऽपरमित्ति णच्चा' अर्थात् गृहस्थ धर्म को अपरम (जघन्य) जानकर विद्वान् प्रशस्त आत्महित करे ।
सावज्जजोग परिवज्जणटुं सामाइयं केवलिहं पसत्थं । गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णच्चा कुज्जा बुधो अप्पहियं पसत्थं ।।
-मूलाचार ०७/३३ किन्तु आवश्यक नियुक्ति में 'गिहत्थधम्मा परमंति णच्चा' कहा है । दीपिकाकार ने इसका ‘गृहस्थधम्मात्परमं प्रधानमिति'--यह अर्थ किया है । यथा
सावज्जजोगप्परिवज्जणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्यं । गिहत्थधम्मापरमंति णच्चा, कुज्जा वुहो आयहियं परत्थं ।।
-आ.नि. ३०० ३. प्रतिक्रमण के भेदों की गणना में मूलाचार में दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक तथा औत्तमार्थ-ये सात भेद बताये हैं । यथा
पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खियं चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमटुं च ।। मूलाचार ७/११६
यहाँ मूलाचार के 'इरियापथ' के स्थान पर आवश्यक नियुक्ति में इत्तरियमावकहियं' (इत्वरं, यावत्कथिकं च) पद देकर प्रतिक्रमण के आठ भेद बताये हैं । यथा
पडिकमणं देसियं राइयं च इत्तरियभावकहियं च । .. पक्खिय चाउम्मासिय, संवच्छर उत्तिमद्वेय ।। आव.नि. १२४४
४. मूलाचार ७/१२९ और आवश्यक नियुक्ति १२४१ दोनों में ही प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों का ‘सप्रतिक्रमणधर्म' तथा मध्यम तीर्थंकरों के समय अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करना बताया है । इसके लिए मूलाचार में 'अवराहे' (अपराधे सति) तथा आवश्यक नियुक्ति में इसके लिए ‘कारण जाए' (अतिचार जाते सति) शब्द का प्रयोग है ।
. ५. मूलाचार में आलोचना के पर्यायवाची नामों में एक ही 'विगडीकरणं' शब्द का प्रयोग है । यथा
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