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ग्रन्थ अपभ्रंश में लिखा । इस आधार पर कुछ विद्वान् आचार्य वसुनन्दि का समय १२वीं शती का पूर्वार्ध अथवा १२वीं शती का अन्तिम भाग मानते हैं । क्योंकि आचार्य अमितगति (११वीं शती) के उपासकाचार से पाँच श्लोक आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचारवृत्ति में उद्धृत किये हैं । किन्तु इनके ग्रन्थों की भाषा, शैली और विषय प्रतिपादन आदि के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये इस काल से भी . पूर्व के आचार्य थे । इनके समय-निर्धारण की दिशा में अनेक दृष्टिकोणों से शोध की आवश्यकता है ।
आ० वसुनन्दि की रचनायें - इनके द्वारा लिखित अन्य ग्रन्थों में मूलाचार वृत्ति के साथ ही आप्तमीमांसा - वृत्ति, जिनशतकटीका, प्रतिष्ठासार-संग्रह — ये सभी संस्कृत में एवं उपासका ध्ययन अपरनाम वसुनन्दि श्रावकाचार जोकि शौरसेनी प्राकृत भाषा में लिखित है । इनके अतिरिक्त तच्चवियारो सारो (तत्त्वविचार) ग्रन्थ भी इन्हीं की कृति मानी जाती है, जो कि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित है ।
वैशिष्ट्य - मूलाचार की इनकी आचारवृत्ति के प्रारम्भ में उल्लेख है कि आचारांग की पदसंख्या १८ हजार प्रमाण थी, उसका संक्षेप आचार्य वट्टकेर ने किया और उस पर इन्होंने १२ हजार श्लोकप्रमाण आचारवृत्ति लिखी । आपको इस संस्कृत आचारवृत्ति के अनुसार मूलाचार में १२५२ गाथायें हैं । इस टीका ने जहाँ मूलाचार के अध्ययन को सरल बनाया है, वहीं श्रमणाचार परक अनेक गूढ़ विषयों, पारिभाषिक शब्दों का प्रामाणिक विधि से स्पष्ट विवेचन किया है । अनेक गाथाओं के मूल प्राकृत शब्दों के आधार पर व्याख्या की । इससे मूल गाथाओं के प्राकृत शब्द सुरक्षित हुए हैं ।
इसकी महत्ता तब और बढ़ जाती है, जब मूल-गाथा और वृत्ति में सुरक्षित उसी गाथा के शब्दों में अन्तर दिखलाई देता है । पारिभाषिक शब्दों का अर्थ इतने अच्छे एवं सटीक रूप में दिया गया है कि यदि इन परिभाषाओं का संग्रह कर लिया जाए तो जैन सिद्धान्तों का एक बृहद् - कोश बन सकता है । इस आचारवृत्ति से जहाँ जैन सिद्धान्तों, संस्कृत व्याकरण आदि के गहन अध्ययन और ज्ञान का पता चलता है, वही इनके अनेक जैन एवं जैनेतर शास्त्रों तथा विधाओं के व्यापक अध्ययन की भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है । इसीलिए स्वाध्याय हेतु इसका लोकप्रिय प्रचलन और प्रसिद्धि में प्रस्तुत वृत्ति अग्रणी है ।
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