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२. भट्टारक सकलकीर्ति कृत मूलाचार प्रदीप
मूलाचार के एक और व्याख्याता भट्टारक आचार्य सकलकीर्ति हैं । इन्होंने इसके आधार पर 'मूलाचार-प्रदीप' नामक संस्कृत भाषा में विस्तृत स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा । इनका समय विक्रम की १५वीं शती माना जाता है । डॉ. विन्टरनिट्ज ने इनका स्वर्गारोहण लगभग १४६४ ई. माना है । ज्ञानार्णव की प्रशस्ति के अनुसार इन्होंने अपनी लीला मात्र से शास्त्र समुद्र को भली प्रकार बढ़ाया । वैसे १९वीं शती के सकलकीर्ति नामक एक दूसरे भट्टारक विद्वान् भी हुए हैं । किन्तु १५वीं शती के उपर्युक्त भट्टारक सकलकीर्ति अद्भुत प्रतिभा के धनी और बहुशास्त्र वेत्ता थे । ज्ञानार्णव की ही प्रशस्ति के अनुसार आप भट्टारक पद पर आरूढ़ होते ही अपनी तेजस्वी प्रतिभा के सदुपयोग हेतु बड़ी आसानी से जैन साहित्य भण्डार की श्रीवृद्धि में लग गये ।
। इनकी लेखनी बहुमुखी रही, अत: इन्होंने प्राय: सभी विषयों पर कई भाषाओं में अनेक ग्रन्थों की रचना की । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और राजस्थानी जैसी अनेक भाषा-भाषाओं पर इनका समान अधिकार था । गुजरात और बागड़ आदि क्षेत्रों में जैनधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार भी इन्होंने किया ।
भट्टारक सकलकीर्ति ने अपने मूलाचार प्रदीप में प्राय: उन सभी विषयों का विस्तृत वर्णन किया है, जिनका प्रतिपादन आचार्य वट्टकेर ने अपने मूलाचार में किया । मूलाचार के आधार पर लिखे जाने पर भी आचार्य सकलकीर्ति का यह मूलाचार-प्रदीप ग्रन्थ ३००० से भी अधिक संस्कृत पद्यों से युक्त स्वतन्त्र कृति जैसा लगता है। इसमें कहा है कि मैं (आचार्य सकलकीर्ति) इष्टदेवों को नमन करके शुभ और श्रेष्ठ अर्थों को जानकर मुलाचार जैसे महान ग्रन्थों में कहे हए आचारों में प्रवृत्ति हेतु तथा स्वयं का और मुनियों का हित करने के लिए शुद्धाचार स्वरूप का प्ररूपक मूलाचार प्रदीप नामक महाग्रन्थ की रचना करता हूँ।
विशेष ज्ञातव्य है कि मूलाचार के पर्याप्ति नामक १२वें अधिकार के करणानुयोग के विषयों का मूलाचार प्रदीप में विवेचन नहीं किया गया । ३. आचार्य मेघचन्द्रकृत मूलाचार-सवृत्ति - मूलाचार के तीसरे व्याख्याकार आचार्य मेघचन्द्र हैं । इन्होंने इस पर कर्नाटक 'मूलाचार सद्वृत्ति' की रचना की । यह दक्षिण भारत के शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध मानी जाती है ।
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