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मूलाचार के बारह अधिकार
मूलाचार में - १. मूलगुण, २. बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव, ३. संक्षेप प्रत्याख्यान संस्तरस्तव, ४. समाचार, ५. पंचाचार, ६. पिण्डशुद्धि, ७. षडावश्यक, ८. द्वादशानुप्रेक्षा, ९. अनगार - भावना, १०. समयसार, १९. शीलगुण, १२. पर्याप्ति - बारह अधिकार हैं, जिनमें कुल १२५२ गाथायें हैं । कुछ अन्यान्य संस्कारों के आधार पर गाथा संख्या में कुछ अन्तर है ।
ये सभी बारह अधिकार परस्पर सम्बद्ध होकर क्रमबद्ध रूप में मुनिधर्म का उत्तरोत्तर विवेचन करते हैं फिर भी इस ग्रन्थ का प्रत्येक अधिकार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का भी रूप लिये हुए हैं । यदि प्रत्येक अधिकार को अलग-अलग प्रकाशित करके इनका अध्ययन हो तो भी उनमें से प्रत्येक अधिकार में अपने-अपने विषय का सम्पूर्ण ग्रन्थ ही लगता है । इसके सातवें षडावश्यक अधिकार का ही उदाहरण सर्वश्रेष्ठ है ।
इसका प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है और अन्त भी उपसंहारात्मक शैली में हुआ है । इसके प्रारम्भ में ही आचार्य ने प्रतिज्ञा की है कि मैं अब 'आवश्यक निर्युक्ति' का कथन कह रहा हूँ और फिर इस पूरे अधिकार में छह आवश्यकों का क्रमशः भेद-प्रभेद सहित सारभूत अच्छा विवेचन किया गया है । इस प्रकार इसके महत्त्व को देखते हुए इसे "आवश्यक निर्युक्ति" इस नाम से ही स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया गया है ।
मूलाचार के प्रथम अधिकार में अट्ठाईस मूलगुणों का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । यहाँ कहा गया है कि श्रमणाचार रूप वृक्ष के लिए जो मूल (जड़) के समान हो वे मूलगुण है । ये श्रमणधर्म की आधारशिला है । सम्पूर्ण मुनिधर्म अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध है । इनमें न्यूनाधिकता रहने पर साधक को श्रमणधर्म से च्युत माना गया है ।
मूलाचार का अन्तिम अधिकार है - 'पर्याप्ति' । इसमें पर्याप्ति, मार्गणा, जीवसमास, गुणस्थान तथा अधोलोक (नरक) ऊर्ध्वलोक (स्वर्ग) मध्यलोक और इनके निवासी जीवों का विविध रूप से तथा अन्यान्य करणानुयोग विषयक उन जैन सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है, जो आचार्य वट्टकेर को इन विषयों का ज्ञान अविच्छिन्न आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था ।
इस तरह आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार के माध्यम से मात्र श्रमण परम्परा को ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण भारतीयता को वह आचार संहिता प्रदानकर महनीय
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