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प्राकृत साहित्य, मूलसंघ एवं श्रमणाचार के आगम-सम्मत प्ररूपक के रूप में महान् गौरवशाली आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित एवं पूज्य बना दिया है ।
सारसमय ग्रन्थ-मूलाचार के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि आ० वट्टकेर अपनी एक "सारसमय" नामक अन्य कृति का भी यहाँ उल्लेख किया है । यथा
एवं तु सारसमए भणिदा दु गदीगदी मया किंचि । णियमादु मणुसगदिए णिव्वुदिगमणं अणुण्णादे ।।
(मूलाचार-१२/१४३) किन्तु "सारसमय" नामक उनकी यह कृति अब तक कहीं या किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध नहीं हुई और कहीं इसका उल्लेख भी नहीं है । वृत्तिकार ने आ० वसुनन्दि ने सारसमय की पहचान व्याख्याप्रज्ञप्ति से की है । किन्तु जिस विषय को आचार्य वट्टकेर ने अपने सारसमय ग्रन्थ से ज्ञातकर लेने की बात कही है, वैसा कुछ अर्धमागधी व्याख्याप्रज्ञप्ति में नहीं है ।
आ० वट्टकेर का व्यक्तित्व-मूलाचार के गहन अध्ययन से आचार्य वट्टकेर का बहुश्रुत व्यक्तित्व एवं उत्कृष्ट चारित्रधारी आचार्य के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है । वे मूलसंघ की परम्पराओं के पोषक उत्कृष्ट चारित्रधारी एक महान् दिगम्बर आचार्य थे, जिन्होंने अपने अपूर्व संयमी और दीर्घ तपस्वी जीवन की सम्पूर्ण अनुभूतियों का यत्र-तत्र सचित्र चित्रण भी किया है । वे दक्षिण भारत (बेट्टकेरी स्थान) के निवासी थे । उनका सम्भवत: मूल-नाम और कुछ रहा होगा, किन्तु इस क्षेत्र में विचरण या जन्म के कारण उनका क्षेत्र विशेष के नाम पर "वट्टकेर" नाम ही प्रसिद्ध हो गया और मूलनाम विस्मृत हो गया लगता
वैसे भी दक्षिण भारत में अपनी जन्मभूमि स्थल वाले गाँव आदि विशेष के नाम के साथ अपना नाम लिखने की प्रथा आज भी देखी जा सकती है । जैसे—“सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ।' पूर्व राष्ट्रपति के नाम के साथ “सर्वपल्ली" यह उनके मूल निवास-स्थल ग्राम का नाम है ।
उन्होंने एक निश्चित रूपरेखा के आधार पर मूलाचार की ऐसी रचना की जो आज तक और आगे भी श्रमणों के आचार हेतु दीपस्तम्भ का कार्य करता रहेगा । क्योंकि मूलाचार में श्रमणाचार विषयक एक ऐसा संविधान है, जिसमें सच्चे श्रामण्य की सर्वांगपूर्व रूपरेखा प्रस्तुत की गई है, जिसके आधार पर सभी श्रमण रत्नत्रय पाकर अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करते हैं ।
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