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जैन आगमों तथा आगमेतर शास्त्रों पर इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृत व्याख्यायें हैं, कि उनका आकलन भी मुश्किल है किन्तु इनके माध्यम से जहाँ आगमों के रहस्यों का मात्र उद्घाटन ही नहीं हुआ अपितु उन उन सिद्धान्तों, तथ्यों और तत्त्वों का विकास (विस्तार) भी बहुत हुआ । इतना ही नहीं, अपितु इनमें तत्कालीन भारतीय संस्कृति, ऐतिहासिक घटनायें एवं साक्ष्य, विभिन्न-धर्मदार्शनिक मतों के शास्त्रीय मूल अंश, उनकी समीक्षायें, कथानक आदि विपुल सामग्री से ओतप्रोत है ।
इन संस्कृत टीकाओं में पूर्वोक्त प्राचीन निर्युक्तियों, भाष्यों एवं चूर्णियों जैसी व्याख्याओं का तो भरपूर उपयोग हुआ ही, साथ ही नये-नये तथ्यों, हेतुओं एवं तर्कों द्वारा उस सामग्री को पुष्ट भी किया गया है । पारिभाषिक एवं लोक प्रचलित शब्दों को भी सुरक्षित रखने में इन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है । कुछ टीकायें जैसे कसायपाहुड की जयधवला टीका एवं षट्खण्डागम की धवला टीका- ये दो मणिप्रवालन्याय की तरह प्राकृत और संस्कृत - दोनों मिश्रित भाषाओं में लिखी हुईं उपलब्ध हैं ।
जहाँ अर्धमागधी आगम साहित्य पर आ० जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपज्ञवृत्ति के रचयिता ), आ० हरिभद्र, शीलांकसूरि, अभयदेवसूरि, मलयगिरि आदि जैसे शताधिक आचार्यों ने संस्कृत टीकायें लिखी हैं, वहीं शौरसेनी आगम साहित्य पर आचार्य अपराजित, वीरसेन, जिनसेन, पूज्यपाद, अकलंक, प्रभाचन्द्र, विद्यानन्द, जयसेन, वसुनन्दि जैसे एक से बढ़कर एक-ऐसे अनेक आचार्यों ने संस्कृत टीकायें लिखीं हैं । इनमें अनेक स्वोपज्ञ वृत्तियाँ भी उपलब्ध हैं, वहीं मूल संस्कृत शास्त्रों पर भी सहस्रों टीकायें उपलब्ध हैं ।
५. लोकभाषाओं का व्याख्या साहित्य - जैसा कि पहले ही कहा गया है। कि जैनाचार्यों ने मूल आगमों तथा इन जैसे मूलशास्त्रों के हार्द को तत्कालीन समाज तक पहुँचाने हेतु जिस युग में जैसी और जो भाषा अत्यधिक प्रभावपूर्ण रही, उन्होंने उसी भाषा में अपने विचार पहुँचाने के हर सम्भव प्रयास किये । इसीलिए जब सामान्य जनजीवन में संस्कृत भाषा बहुत कठिन तथा प्रचलन एवं समझ से बाहर प्रतीत होने लगी तब जैनाचार्यों ने लोक भाषाओं में मूल आगम ग्रन्थों एवं आगम- सम-शास्त्रों पर टीका ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया । अर्धमागधी आगम पर गुजराती, राजस्थानी आदि अनेक लोकभाषाओं में विपुल साहित्य उपलब्ध है ।
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