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परम्परायें, धर्म-दर्शन आदि के समग्र अध्ययन के लिए ये भाष्य हमें विपुल नये तथ्यों से युक्त सामग्री प्रदान करते हैं, अतः इनका अनुसंधान आवश्यक हैं ।
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आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (वि. सं. ७वीं शती) ने विशेषावश्यक भाष्य, जीतकल्पभाष्य – ये दो भाष्य तथा आ० संघदासगणि ने बृहत्कल्पलघुभाष्य और पंचकल्पभाष्य - ये भाष्य लिखें हैं । इनके साथ ही आवश्यक सूत्र (इस पर तीन भाष्य उपलब्ध हैं), दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, ओघनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति—इन आगमों पर भी भाष्य उपलब्ध हैं ।
३. चूर्णि – प्राकृत आगमों की संस्कृत मिश्रित प्राकृत बहुल गद्यबद्ध रूप में रचित व्याख्या को चूर्णि कहा गया है । अभिधान राजेन्द्र कोश (चुण्णपद) में चूर्णिपद का स्वरूप इस प्रकार कहा है
अत्थ बहुलं महत्थं हेउ निवाओवसग्गगम्भीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गय णयसुद्धं त चुण्णपयं ।।
अर्थात् अर्थ बहुल, महत् अर्थ का धारक, हेतु -निपात और उपसर्ग युक्त, गम्भीर, अनेक पद समन्वित और अव्यवच्छिन्न चूर्णि पद कहलाते हैं । चूर्णि पद का यह लक्षण अर्धमागधी के आगमों पर लिखित चूर्णियों के साथ ही दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी प्राकृत आगमों पर लिखित चूर्णिसूत्रों पर भी लागू होते हैं ।
चूर्णि साहित्य का तुलनात्मक विवेचन – जैन साहित्य का इतिहास (प्रथम भाग पृ० १७१) में सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री जी के अनुसारदिगम्बर परम्परा का “चूर्णिसूत्र साहित्य" श्वेताम्बर - परम्परा के “चूर्णिसाहित्य” से स्थापत्य और वर्ण्य विषय दोनों ही दृष्टियों से भिन्न है। श्वेताम्बर परम्परा की चूर्णियाँ गद्यात्मक और पद्यात्मक मिश्रित शैली में लिखी गयी हैं । इनकी भाषा भी संस्कृत मिश्रित प्राकृत है तथा कतिपय चूर्णियाँ प्राकृत में भी उपलब्ध हैं । इन चूर्णियों की शैली की एक प्रमुख विशेषता आख्यानात्मक उदाहरणों द्वारा विषय के स्पष्टीकरण की है । चूर्णिकार अपनी ओर से कोई सैद्धान्तिक नये तथ्य अंकित नहीं करता, अपितु निर्युक्तियों और भाष्यों द्वारा विवृत तथ्यों की ही पुष्टि करता है ।
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दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध चूर्णि मात्र व्याख्या ही नहीं है, अपितु इन्हें यहाँ “चूर्णिसूत्र” की संज्ञा प्राप्त है । अतः इनमें आगम से सम्बन्धित मौलिक तथ्यों की बहुलता है । बीज - पद रूप गाथा सूत्रों पर ये " चूर्णिसूत्र” वृत्ति का भी
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