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एवं वैज्ञानिक व्याख्या पद्धति है । जैनधर्म के प्राण स्वरूप अनेकान्त सिद्धान्त का तो यह व्यावहारिक प्रयोग है ।
निक्षेप के छह भेद - मूलाचारगत आवश्यक निर्युक्ति में प्रत्येक आवश्यक के स्वरूप विवेचन में निक्षेप - कथन-पद्धति को मुख्य आधार बनाया गया है ।
यथा
णामट्ठवणा दव्वे खेत्ते काले तहेव भावे य । एसोणिक्खेओ छव्विओ ओ ।। १७ ।।
सामाइ
अर्थात् नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव - - सामायिक में यह छह प्रकार का निक्षेप होता है । इनका स्वरूप मूलाचार आ० नि० के तद्-तद् स्थलों से जाना जा सकता है ।
यद्यपि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव - इस प्रकार निक्षेप के मुख्यतः चार भेद भी हैं । अर्धमागधी आवश्यक निर्युक्ति के प्रारम्भ में अर्हन्त, 1 सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु - इन पाँच परमेष्ठी के स्वरूप-कथन में इन्हीं चार प्रकार के निक्षेप को आधार अपनाया गया है । तत्त्वार्थसूत्र (१/५) में भी “नामस्थापनाद्रव्यभावस्तस्तन्यास:" इस सूत्र के माध्यम से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव – इन चार प्रकार के न्यास (निक्षेप) बतलाये हैं । किन्तु मूलाचारगत आ० नि० में पूर्वोक्त छह प्रकार से निक्षेप का कथन किया गया है । सिद्धान्त ग्रन्थों में भी यही पद्धति अपनायी गयी है ।
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२. भाष्य- – नियुक्तियों की तरह भाष्य भी प्राकृत पद्यबद्ध होते हैं । जहाँ नियुक्तियों का उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना है, वहीं इन शब्दों में छिपे अर्थ बाहुल्य को अभिव्यक्त करने का कार्य भाष्यकारों ने किया है । वस्तुतः नियुक्तियों की गूढ़ता एवं संकोचशीलता के कारण आगमों के अनेक गूढ़ार्थों को आगे की ओर सूक्ष्म व्याख्याओं के बिना समझना सरल नहीं होता । अतः निर्युक्तियों के आधार पर और स्वतन्त्र रूप से भी प्राकृत पद्य में जो व्याख्यायें लिखी गयी हैं वे भाष्य के नाम से उपलब्ध हैं ।
भाषा और शैली की दृष्टि से नियुक्तियों और भाष्य में इतनी समानता और परस्पर इतना सम्मिश्रण है कि कहीं-कहीं इन दोनों के पृथक्करण में काफी कठिनाई होती है । कहीं-कहीं तो समझना कठिन होता है कि यह नियुक्ति गाथा है या भाष्य । किन्तु इन भाष्यों के अध्ययन से मूल आगमों के गूढ़ विषय और रहस्य बहुत स्पष्ट हो जाते हैं । प्राचीन भारतीय संस्कृति, इतिहास, सभ्यता,
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