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उदाहरण द्वारा भाष्यकार कहते हैं कि जैसे मंख-चित्रकार अपने अपने फलक पर चित्रित चित्रकथा को कहता है तथा शलाका अथवा अंगुलिक के साधन से उसकी व्याख्या करता है, उसी प्रकार प्रत्येक अर्थ का सरलता से बोध कराने के लिए सूत्रबद्ध अर्थों को नियुक्तिकार नियुक्ति के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। नियुक्ति की निक्षेप-कथन शैली
आचार्य वट्टकेर ने प्रस्तुत आवश्यक नियुक्ति में सामायिक आदि जिन छह आवश्यकों का स्वरूप प्रस्तुत किया है, उसमें प्रत्येक आवश्यक की विवेचन पद्धति की यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि उनका कथन "निक्षेप" शैली में किया है।
“निक्षेप" जैन पारिभाषिक शब्दों में एक विशिष्ट शब्द है, जो इस स्वरूप में अन्यत्र दुर्लभ है । जैनदर्शन में प्रमाण, नय और निक्षेप–इन तीनों अलगअलग अर्थ के बोधक होने पर भी तीनों की परस्पर अभिसंधि है । आ० देवसेन ने बृहद् नयचक्र (गाथा १७२) में कहा है
वत्थू पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थूएयंसं ।
जं दोहि णिण्णयटुं तं णिक्खेवे हवे विसयं ।। अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु 'प्रमाण' का विषय है और उसी सम्पूर्ण वस्तु का एक अंश 'नय' का विषय है । इन दोनों से निर्णय किया गया पदार्थ “निक्षेप' में विषय होता है । वस्तुत: नय और निक्षेप में विषय-विषयी भाव है । जो नयों के द्वारा पदार्थों का नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से एक प्रकार का आरोप किया जाता है, उसे "निक्षेप" कहते हैं । इस तरह निक्षेप उपाय स्वरूप है । अर्थात् नाम, स्थापना आदि के द्वारा वस्तु के भेद करने के उपाय को "निक्षेप' कहते हैं इसीलिए आ० पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (१/५/१९) में कहा है-"निक्षेपविधिना शब्दार्थः प्रस्तीर्यते" अर्थात किस शब्द का क्या अर्थ है ? यह निक्षेप विधि के द्वारा विस्तार से बताया जाता है ।
षड्खण्डागम की धवला टीका (१/१,१, १/३०-३१) में आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है कि-श्रोता तीन प्रकार के होते हैं-१. अव्युत्पन्न श्रोता, २. सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थ के जानने वाले श्रोता तथा ३. एकदेश विवक्षित पदार्थ को जानने वाले श्रोता । इन तीनों प्रकार के श्रोताओं को ध्यान में रखकर ही पदार्थ का वैसा कथन किया जाता है ।
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