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________________ ( १२ ) पाहुड साहित्य — यह सब परमागम के रूप में प्रतिष्ठित है, क्योंकि ये सब मूल आगम साहित्य के ही अंश या प्रतिनिधि हैं और भी इसी तरह का प्रभूत साहित्य विद्यमान है । आ० वट्टकेर के मूलाचार को तो आचार्यों ने “आचारांग” नाम ही दिया है । मूलाचार की यह भी विशेषता है कि इसका सप्तम् षडावश्यकाधिकार तो मूल रूप में संक्षिप्त आवश्यक निर्युक्ति के रूप में ही सुरक्षित है, जिसके विषय में आगे विवेचन द्रष्टव्य है । - आ० गुणधर प्रणीत कसायपाहुड- सुत्त की जयधवला टीका तथा आ० पुष्पदन्त भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागम की धवला टीका आदि अनेक सिद्धान्त ग्रन्थों के विषय का प्रतिपादन निक्षेप पद्धति से ही किया गया है । इन टीकाओं में तो पूर्वोक्त प्रायः सभी व्याख्या पद्धतियों के दर्शन होते हैं । नियुक्ति का प्रयोजन – सूत्र के साथ अर्थ का परस्पर नियोजन अर्थात् सम्बन्ध स्थापित करना निर्युक्ति है - " सूत्रार्थयो परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं निर्युक्तिः ।" वस्तुतः एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं किन्तु कौन सा अर्थ किस प्रसङ्ग के लिए उपयुक्त होता है ? भगवान् महावीर के उपदेश के समय कौन सा अर्थ किस शब्द से सम्बद्ध रहा है ? इत्यादि प्रसंगों को दृष्टि में रखकर प्रसंगानुसार सम्यक् रूप से अर्थ का निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना, यही नियुक्ति का प्रयोजन है ।" मूल आगमों के रहते अलग से नियुक्ति लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? इस प्रश्न के उत्तर में नियुक्तिकार स्वयं कहते हैं- 'तह वि य इच्छावेइ विभासिउं सुत्तपरिवाडी' (आव० नि० ८८ ) सूत्र में अर्थ निर्युक्ति होने पर भी सूत्र पद्धति की विविध प्रकार से व्याख्या करके शिष्यों को समझाने के लिए नियुक्ति की रचना की जा रही है । इसी गाथा की व्याख्या करते हुए विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि - श्रुतपरिपाटी में ही अर्थ निबद्ध है । अतः अर्थाभिव्यक्ति की इच्छा नहीं रखने वाले नियुक्तिकर्त्ता आचार्य को श्रोताओं पर अनुग्रह करने के लिए वह श्रुतपरिपाटी ही अर्थ- प्राकट्य की ओर प्रेरित करती है । कहा भी है Jain Education International तो सुयपरिवाडिच्चिय, इच्छावेइ तमणिच्छमाणं पि । निज्जुत्ते वि तदत्थे वोत्तं तदणुग्गहट्ठाएं || (विशेषावश्यक भाष्य - १०८८) नियुक्ति पंचक (खण्ड ३) सम्पादकीय अंश, प्रका० जैन विश्व भारती, लाडनू (राज० ) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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