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रूप में उपलब्ध तथा आरम्भिक ग्यारह अंगों सहित सभी मल अंग आगमों को लुप्त मानती है । इस प्रकार यदि आग्रहमुक्त और उदारवादी दृष्टिकोण से दोनों को जोड़कर देखा जाय तो कमोवेश सम्पूर्ण बारह अंग आगमों की विपुल श्रुत (ज्ञान) सम्पदा का अपूर्व वैभव हमारे पास सुरक्षित है । हमने जो कुछ खोया है उससे अधिक सुरक्षित भी है । इसीलिए इनके अध्ययन-अनुसंधान और संरक्षण के उपायों पर गम्भीर चिन्तन आवश्यक है । ___हमारे महान् पूर्वाचार्यों ने भी हमें जो आगमेतर विशाल श्रुतसम्पदा विरासत में हमें सौपी है, यदि उसे हम सुरक्षित रख सके और उसके दिव्य आलोक से अपने को आलोकित कर सके तो हमारा जीवन सार्थक और सफल हो सकता है । क्योंकि मूल आगम साहित्य के बाद भी हमारे आचार्यों ने इन मूल आगमों के सूत्रों के रहस्योद्घाटन के लिए उन पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, वार्तिक आदि विविध व्याख्याओं के साथ ही आगमतुल्य सहस्रों ग्रन्थों का विभिन्न प्राचीन भारतीय भाषाओं में सृजनकर जैन साहित्य के साथ ही भारतीय वाङ्मय को समृद्ध करने में महनीय योगदान किया है। आगमों का व्याख्या साहित्य
प्राचीन भारतीय आचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जहाँ अपनी तप:पूत लेखनी से विविध भारतीय विद्याओं के मूलशास्त्रों की रचना कर अपनी अद्भुत प्रतिभा का सदुपयोग किया, वहीं उन्होंने और इनकी परम्परा के परवर्ती आचार्यों ने उन मूलशास्त्रों के अर्थ-गाम्भीर्य और गूढ़ रहस्यों के उद्घाटन एवं विस्तार हेतु विविध व्याख्यात्मक ग्रन्थ लेखन में अपना गौरव माना । इसी पवित्र
और उदार भावना से भारतीय व्याख्या-साहित्य का विपुल भण्डार भरा हुआ है । जैनाचार्यों ने तो आगमों एवं आगमेतर मूलशास्त्रों पर इतना अधिक व्याख्या-साहित्य का निर्माण किया कि यदि उनका आकलन किया जाए तो अनेक खण्डों में ही इस तरह के ग्रन्थों की सूत्रीमात्र का संग्रह सम्भव होगा ।
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-इन दोनों ही जैन परम्पराओं में अनेक टीका ग्रन्थ तो इतने लोकप्रिय हुए कि वे टीका के नाम से ही ज्यादा प्रसिद्ध हो गये, मूल ग्रन्थ के नाम की उन्हें जरूरत ही नहीं पड़ी । इनमें कुछ प्रमुख हैं-धवला एवं जयधवला टीका (क्रमशः षड्खण्डागम एवं कसायपाहुड पर आ० वीरसेन स्वामी लिखित टीका), सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र पर आ० पूज्यपाद द्वारा लिखित टीका), प्रमेयकमल-मार्तण्ड (आ० प्रभाचन्द्र द्वारा आ० अनन्त वीर्य कृत परीक्षामुखसूत्र पर लिखित टीका), न्यायकुमुदचन्द्र (आ०प्रभाचन्द्र द्वारा आ० अकलंकदेव के लघीयस्त्रय नामक ग्रन्थ पर लिखित टीका) स्याद्वाद मञ्जरी
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