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________________ ( ८ ) पूर्वोक्त वाचनाओं के बाद वीर निर्वाण सं० ९८० (ई. सन् ४५३) में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण जैसे समर्थ आचार्य के नेतृत्त्व में बलभी में उपस्थित श्रमणसंघ ने अपनी-अपनी स्मृति के आधार पर आगमज्ञान को पुरस्कारूढ़ किया । वर्तमान में अर्धमागधी प्राकृत भाषा में उपलब्ध विशाल आगम साहित्य गुजरात के बलभी नगर में आयोजित इसी अन्तिम वाचना की देन है । पैंतालीस संख्या में अर्धमागधी 1 1 श्वेताम्बर जैन परम्परा में सामान्यतः आगम उपलब्ध माने गये हैं । इनमें १२ अंग, १२ उपांग, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, दस प्रकीर्णक आदि प्रमुख आगम उपलब्ध हैं । इनमें आचारांग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशाध्ययन, अन्तःकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत — ये ग्यारह अंग आगम उपलब्ध हैं । इस परम्परा में बारहवाँ " दृष्टिवाद" अंग आगम लुप्त, माना गया है । जबकि दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार श्रुतपरम्परा के रूप में उपलब्ध मूल- आगमज्ञान का क्रमशः उच्छेद होता गया, उसमें मात्र आंशिक आगमज्ञान (बारहवाँ अन्तिम अंग आगम दृष्टिवाद का कुछ अंश) ही आचार्य परम्परा से सुरक्षित रहा, जिसे आचार्य गुणधर ने 'कसाय - पाहुडसुत' नामक ग्रन्थ में पुस्तकारूढ किया तथा आचार्य धरसेन ने आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि जैसे समर्थ शिष्यों को ईसा की प्रथम शती के आसपास वाचना देकर 'छक्खण्डागम' (षट्खण्डागम) ग्रन्थ तथा इनकी क्रमशः जयधवला और धवला जैसी विशाल टीकाओं के माध्यम से आंशिक आगमज्ञान को सुरक्षित रखने के प्रयत्न किये । इनके साथ ही आचार्य कुन्दकुन्द, शिवार्य, वट्टकेर, यतिवृषभ, नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती जैसे एक से बढ़कर एक समर्थ आचार्यों की लम्बी परम्परा है, जिन्होंने तीर्थंकर महावीर की वाणी को प्रभावक रूप में अपने-अपने आगम शास्त्रों के माध्यम से सुरक्षित रखकर महनीय योगदान किया । इस तरह दिगम्बर परम्परा मूल अंगादि आगमों को लुप्त मानती अवश्य है, किन्तु तीर्थंकर महावीर के उत्तरवर्ती समर्थ आचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्रों को आगम के रूप में महत्त्व एवं सम्मान प्रदान करती है । वेदों की तरह आगमों का संरक्षण आवश्यक – वैदिक परम्परा में वेदों को मूलरूप में सुरक्षित रखने के प्रयत्नों में ब्राह्मण - विद्वानों के आदर्श की प्रशंसा के रूप में सन्दर्भित करना भी आवश्यक है । वैदिक विद्वानों ने वेदों के मूलस्वरूप को सुरक्षित रखने के लिए वेदों की ऋचाओं और मन्त्रों के उच्चारण में स्वरों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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