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इस प्रकार लम्बे समय तक मूलाचार पर कार्य करने के बाद मैंने इस आवश्यक नियुक्ति का सम्पादन तथा अनुवाद पूर्वोक्त भाषा-वचनिका और भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी द्वारा मूलाचार के अनुवाद के साभार सहयोग से भी पूरा किया । आ० वसुनन्दि की संस्कृत आचार-वृत्ति सहित मूलाचार की हस्तलिखित पाण्डुलिपि की फोटो कापी भी मेरे पास होने से आचारवृत्ति और मूलाचार के मिलान, पाठभेद और हिन्दी अनुवाद पर विचार आदि में बहुत सहयोग प्राप्त हुआ । माणिकचंद ग्रन्थमाला, मुम्बई से प्रकाशित मूलाचार (दो भागों में) से भी बहुत सहयोग मिला । ___जब मैंने प्रस्तुत आवश्यक नियुक्ति के प्रकाशन से पूर्व की सभी तैयारी कर ली, तब यह कार्य मैंने अपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रकाशन संस्थान के यशस्वी निदेशक प्रो. हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी को दिखलाई, तब ऐसी साहित्य सपर्या को सदा प्रोत्साहित करने वाले प्रो. मणिजी ने इसकी सहर्ष स्वीकृति के साथ ही इसे विजय प्रेस में देकर इसके प्रकाशन का कार्य तुरन्त शुभारम्भ कराके मेरी दीर्घकालीन मंगलभावना को साकार रूप प्रदान किया है । जैन आगम और उसकी परम्परा
जैन श्रमण परम्परा मुख्यरूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर-इन दो परम्पराओं में विद्यमान है । दोनों ही परम्पराओं का प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है । विशेषकर प्राकृत आगम साहित्य का भारत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के विकास में महनीय योगदान है । दोनों ही परम्परायें यह मानती हैं कि तीर्थंकर महावीर के बाद द्वादशाङ्ग रूप आगम ज्ञान दीर्घकाल तक गुरु-शिष्य परम्परा या श्रुति परम्परा द्वारा मौखिक रूप से चलता रहा । इसीलिए आगम को 'श्रुत' भी कहते हैं । किन्तु कालक्रम से स्मृति-क्षीणता एवं क्षयोपशम की हीनता के कारण वह आगमज्ञान की अक्षयराशि दीर्घकाल तक पूर्णरूप से सुरक्षित नहीं रह सकी ।
श्वेताम्बर जैन परम्परा की मान्यतानुसार विभिन्न कालखण्डों में आगमपरम्परा को यथासम्भव सुरक्षित रखने के उद्देश्य से पाटलीपुत्र, मथुरा और बलभी-इन नगरों में श्रमणसंघों के सम्मेलनों के माध्यम से वाचनायें आयोजित हुईं । इनके अनेक उल्लेख जैन साहित्य में उपलब्ध है । उड़ीसा के उदयगिरिखण्डगिरि की हाथीगुम्फा में ईसापूर्व दूसरी शती के महाराजा कलिंग नरेश खारवेल द्वारा ब्राह्मी लिपि और प्राकृत भाषा में लिखाये बृहद् शिखालेख से भी ज्ञात होता है कि महाराजा खारवेल ने भी आगमों को पुस्तकारूढ करने हेतु . वाचनार्थ एक मुनियों का बृहद् सम्मेलन आयोजित किया था ।
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